THE LEARNERS COMMUNITY
5th SEMESTER HINDI (GE)
CHAPTER 1 भारत की भाषाएं परिदृश्य और अनुवाद
हिंदी शब्द की व्यत्पत्ति समझाइए
हिंदी शब्द की व्युत्पत्तिः हिंदी शब्द का संबंध मूल रूप से हिंद या हिंदू आदि शब्दों से है। 'हिंद' या 'हिंदू की कई व्युत्पत्तियाँ हैं। कुछ संस्कृत पंडितों के अनुसार इसे 'हिन् (नष्ट करना) दु (दुष्टा को नष्ट करने वाला') मानते हैं। शब्द कल्पद्रुम में 'हिंदू' को 'हीन+ दुष्+ डु अर्थात् हीनों को दुषित करने वाला' माना गया है। इसकी एक व्युत्पत्ति "यो हिंसायाः दूयते सः हिंदू" की गई है। इसका अर्थ यह है कि हिंसा को देखकर दुखी होने वाला हिंदू है।
ऊपर जितनी भी व्युत्पत्ति दी गई हैं वे सब कल्पना पर आधारित हैं। वास्तविकता यह है कि मूलतः यह 'हिंदू' न होकर 'सिंधु' है। 'सिंधु' शब्द भी संस्कृत का नहीं है। डॉ० भोलानाथ तिवारी के अनुसार यह द्रविड़ भाषाओं का 'सिद्' है जो आर्यों के आगमन के बाद संस्कृतीकरण की प्रवृत्ति के कारण 'सिंधु' हो गया। पश्चिमोत्तर नदी विशेष और उसके आसपास के क्षेत्र को सिंधु कहते हैं।
भारत के ईरान से संबंध रहे हैं। इसके अत्यंत
पुष्ट प्रमाण उपलब्ध हैं। ईरानियों ने यहाँ आने पर 'सिंधु' को 'हिंदू' रूप में उच्चरित कर दिया। क्योंकि हमारे यहाँ की 'स' ध्वनि वहाँ 'ह' (सफ्त-हफ्त) और महाप्राण
ध्वनियाँ अल्पप्राण रूप में उच्चरित होती रही हैं।
-
शुरू में ईरानियों ने 'सिंधु' नदी को और आसपास के
क्षेत्र को 'हिंदू' कहा। आखिरकार पूरे भारत
को 'हिंदू' कहा जाने लगा।
- अंत्य 'उ' के लोप होने से यह 'हिंद' हुआ और इसमें इक प्रत्यय के योग से 'हिंदीक' बना जिसका अर्थ है 'हिंद का।' यही 'हिंदीक' ही 'क' के लोप से 'हिंदी' बना और संज्ञा या विशेषण रूप में अनेक अर्थों-मलमल, एक विशेष प्रकार की तलवार, काला, डाकू, हिंद का में प्रचलित हुआ।
भाषा के अर्थ में हिंदी शब्द का प्रारंभिक
प्रयोग भी फारस और अरब में ही छठी शताब्दी ई. पू. से मिलता है। मुसलमानों का संबंध
मूलतः मध्य देश से था इसलिए इस क्षेत्र की भाषा को उन्होंने 'जबाने हिंदी' या 'हिंदी जबान' कहा। शुरू में इसका
प्रयोग मुसलमानों की हिंदवी के लिए हुआ। बाद में यह हिंदवी' अथवा दक्खिनी का
समानार्थी हो गया।
सन् 1800 के बाद अंग्रेज़ों और विशेष रूप से फोर्ट विलियम के द्वारा यह ऐसी भाषा के रूप में प्रचलित हुआ जिसकी लिपि देवनागरी थी और यह शब्द समूह की दृष्टि से संस्कृत की ओर झुकी हुई थी। आज भी यह शब्द लगभग इसी अर्थ में प्रयुक्त होता है।
>> हिन्दी भाषा का इतिहास लगभग एक हजार वर्ष पुराना माना गया है। संस्कृत भारत की सबसे प्राचीन भाषा है जिसे आर्य भाषा या देव भाषा भी कहा जाता है।
हिन्दी इसी आर्य भाषा संस्कृत की
उत्तराधिकारिणी मानी जाती है । 'हिन्दी'
वस्तुतः फारसी भाषा का
शब्द है, जिसका अर्थ है - हिन्दी
का या हिंद से सम्बन्धित (शब्द हिंदी नहीं शब्द हिंद फारसी का है) हिन्दी शब्द की
निष्पत्ति सिन्धु - सिंध से हुई है क्योंकि ईरानी भाषा में 'स' को 'ह' बोला जाता है। इस
प्रकार हिन्दी शब्द वास्तव में सिन्धु शब्द का प्रतिरूप है। कालांतर में हिंद शब्द
सम्पूर्ण भारत का पर्याय बनकर उभरा। इसी 'हिंद' से हिन्दी शब्द बना ।
>> हिन्दी भारतीय परिवार
की आधुनिक काल की प्रमुख भाषाओं में से एक है।
भारतीय आर्य भाषाओं का विकास क्रम इस प्रकार
है:-
संस्कृत >> पालि >> प्राकृत >> अपभ्रंश
>> हिन्दी व अन्य आधुनिक
भारतीय आर्य भाषाएँ !
>> हिंदी का जन्म संस्कृत
की ही कोख से हुआ है। जिसके साढ़े तीन हजार से अधिक वर्षों के इतिहास को
निम्नलिखित तीन भागों में विभाजित करके हिंदी की उत्पत्ति का विकास क्रम निर्धारित
किया जा सकता है:-
→ 1. प्राचीन भारतीय आर्यभाषा काल (1500 ई० पू० 500 ई० पू०) –
→ 2. मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा काल (500 ई०पू० 1000 ई०) - -
→ 3. आधुनिक भारतीय आर्यभाषा - काल (1000 ई0 से अब तक)
1. प्राचीन भारतीय आर्यभाषाएँ
इनका समय 1500 ई0
पू0
तक माना जाता है। वस्तुत: यह विवादास्पद विषय है। इस वर्ग में भाषा के
दो रूप अपलब्ध होते है-
1.
वैदिक या वैदिक
संस्कृत,
2.
संस्कृत या लौकिक
संस्कृत।
1. वैदिक या वैदिक संस्कृत - इसे ‘वैदिक
भाषा’, ‘वैदिकी’, छान्द या ‘प्राचीन संस्कृत’ भी कहा जाता
है। वैदिक भाषा का प्राचीनतम रूप ऋग्वेद में सुरक्षित है। यद्यपि अन्य तीनों
संहिताओं, ब्राह्मणो-ग्रन्थों तथा प्राचीन उपनिषदों आदि की भाषा भी वैदिक ही है, किन्तु इन सभी में भाषा का एक ही रूप नहीं मिलता।
2. संस्कृत या लौकिक संस्कृत - प्राचीन भारतीय
आर्यभाषा का दूसरा ‘संस्कृत’ है। इसी को ‘लौकिक संस्कृत’ या ‘क्लासिकल संस्कृत’ भी
कहा जाता है। यूरोप में जो स्थान ‘लैटिन’ भाषा का है, वही स्थान भारत में संस्कृत का है। गुप्तकाल में संस्कृत की सर्वाधिक
उन्नति हुई थी। इसका साहित्य विश्व के समृद्धतम साहित्यों में से एक है।
‘वाल्मीकि’,
‘व्यास’, ‘कालीदास’, आदि इसकी महान् विभूतियाँ हैं। विश्व-विख्यात महाकवि कालीदास का
‘अभिज्ञान-शाकुन्तलम्’ नाटक संस्कृत भाषा श्रृंगार है। विश्व की अनेक भाषाओं में
संस्कृत के अनेक ग्रन्थों का अनुवाद हुआ है।
मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषाएँ
1.
पाली भाषा- यह प्राकृत का प्रारम्भिक रूप है जिसका समय 500 ई0
पू0
के प्रथम शताब्दी के प्रारम्भ तक माना गया है। इसकी उत्पत्ति के विषय
में विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ विद्वानों का कहना है कि संस्कृत की उत्पत्ति
प्राकृत से हुई है।
2.
प्राकृत भाषा- इसे द्वितीय प्राकृत और साहित्यिक प्राकृत भी कहते हैं। इसका काल
प्रथम शताब्दी से 5वीं शताब्दी तक है। विभिन्न क्षेत्रों में
इसके भिन्न-भिन्न रूप विकसित हो गये थे।
3.
मागधी भाषा- इसका विकास मगध के निकटवर्ती क्षेत्र में
हुआ। इसमें कोई साहित्यिक कृति उपलब्ध नहीं है।
4.
अर्ध-मागधी भाषा - यह मागधी तथा शौरसेनी के मध्य बोली जाने
वाली भाषा थी। यह जैन साहित्य की भाषा थी। भगवान महावीर के उपदेश इसी में है।
5.
महाराष्ट्री भाषा- इसका मँल स्थान महाराष्ट है। इसमें प्रचुर साहित्य मिलता है। गाहा
सत्तसई (गाथा सप्तशती), गडवहो (गौडवध:) आदि काव्य ग्रन्थ इसी भाषा
में है।
6.
पैशाची भाषा- इसका क्षेत्र कश्मीर माना गया है। ग्रियर्सन ने इसे दरद से प्रभावित
माना है। साहित्यक रचना की दृष्टि से यह भाषा शून्य है।
7. शौरसेनी भाषा - यह मध्य की भाषा थी। इसका केन्द्र मथुरा था। नाटकों में स्त्री-पात्रों के संवाद इसी भाषा में होते थे। दिगम्बर जैन से सम्बधित धर्मग्रन्थ इसी में रचे गए हैं।
प्रमुख आधुनिक
भारतीय आर्यभाषाओं की विशेषताएँ एवं प्रकार
सिन्धी
-
सिन्धी शब्द का
सम्बन्ध संस्कृत सिन्धु से है। सिन्धु देश में सिन्धु नदी के दोनों किनारों पर
सिन्धी भाषा बोली जाती है।
-
सिन्धी की मुख्यतः 5 बोलियाँ-विचोली, सिराइकी, थरेली, लासी, लाड़ी है।
-
सिन्धी की अपनी लिपि
का नाम ‘लंडा’ है, किन्तु यह गुरुमुखी तथा फारसी-लिपि में भी
लिखी जाती है।
लहँदा
-
लहँदा का शब्दगत
अर्थ है ‘पश्चिमी’। इसके अन्य नाम पश्चिमी पंजाबी, हिन्दकी, जटकी, मुल्तानी, चिभाली, पोठवारी आदि है।
-
लहँदा की भी सिन्धी
की भाँति अपनी लिपि ‘लंडा’ है, जो कश्मीर में प्रचलित शारदा-लिपि की ही एक
उपशाखा है।
पंजाबी
-
पंजाबी शब्द ‘पंजाब’
से बना है जिसका अर्थ है पाँच नदियों का देश।
-
पंजाबी की अपनी लिपि
लंडा थी जिससे सुधार कर गुरुअंगद ने गुरुमुखी लिपि बनाई।
-
पंजाबी की मुख्य
बोलियाँ माझी,
डोगरी, दोआबी, राठी आदि है।
गुजराती
-
गुजराती गुजरात
प्रदेश की भाषा है। गुजरात का सम्बन्ध ‘गुर्जर’ जाति से है- गुर्जर + त्रा → गज्जरत्ता → गुजरात।
-
गुजरात की अपनी लिपि
है जो गुजराती नाम से प्रसिद्ध है। वस्तुत: गुजराती कैथी से मिलती-जुलती लिपि में
लिखी जाती है। इसमें शिरोरेखा नहीं लगती।
मराठी
-
मराठी महाराष्ट्र
प्रदेश की भाषा है। इसकी प्रमुख बोलियाँ कोंकणी, नागपुरी, कोष्टी, माहारी आदि हैं।
-
मराठी की अपनी लिपि
देवनागरी है किन्तु कुछ लोग मोडी लिपि का भी प्रयोग करते हैं।
बंगला
-
बंगला संस्कृत शब्द
बंग + आल (प्रत्यय) से बना है। यह बंगाल प्रदेश की भाषा है।
-
नवीन यूरोपीय
विचारधारा का सर्वप्रथम प्रभाव बंगला भाषा और साहित्य पर पड़ा।
-
बंगला प्राचीन
देवनागरी से विकसित बंगला लिपि में लिखी जाती है।
असमी
-
असमी (असमिया) असम
प्रदेश की भाषा है। इसकी मुख्य बोली विश्नुपुरिया है।
-
असमी की अपनी लिपि
बंगला है।
उड़िया
-
उड़िया प्राचीन
उत्कल अथवा वर्तमान उड़ीसा (ओडीसा) की भाषा है। इसकी प्रमुख बोली गंजामी, सम्भलपुरी, भत्री आदि है।
-
उड़िया भाषा बंगला
से बहुत मिलती-जुलती है किन्तु इसकी लिपि ब्राह्मी की उत्तरी शैली से विकसित है।
हिन्दी की आदि
जननी 'संस्कृत' है। संस्कृत पालि, प्राकृत भाषा से होती हुई अपभ्रंश तक पहुँचती है। फिर अपभ्रंश, अवहट्ट से गुजरती हुई प्राचीन/प्रारंभिक हिन्दी का रूप लेती है।
विशुद्धतः,
हिन्दी भाषा के इतिहास का आरंभ अपभ्रंश से माना जाता है।
हिन्दी का विकास क्रम
संस्कृत →पालि → प्राकृत → अपभ्रंश → अवहट्ट प्राचीन/प्रारंभिक हिन्दी ->
हिन्दी भाषा के विकास को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है-
1.प्राचीन काल
2.मध्यकाल
3.आधुनिककाल
1. प्राचीनकाल/आदिकाल (1100 ई. से 1400 ई.)
हिन्दी भाषा
का यह शैशवकाल था। साधारण बोलचाल की भाषा में हिन्दी का प्रयोग आरम्भ हो गया था
तथा अपभ्रंशों का प्रभाव समाप्त हो रहा था। अपभ्रंश की रचनाओं में हिन्दी की
विभिन्न बोलियों और खड़ी बोली के बिम्ब उभरने लगे थे।
2. मध्यकाल (1400 ई. से 1850 ई.)
मध्यकाल में
अपभ्रंशों का प्रभाव नगण्य हो गया हिन्दी खड़ी बोली के साथ-साथ अन्य उपबोलियों के
रूप में स्थापित होने लगी अमीर खुसरो ने हिन्दी के शुद्ध स्वरूप को लेखन शैली में
प्रयोग किया। उधर निर्गुण धारा के कवि कबीर, दादू, नानक, रैदास आदि भी खड़ी बोली का प्रयोग करने लगे
इस काल में ब्रज और अवधी ने भी साहित्य के क्षेत्र में अपना अधिकार जमा लिया।
3. आधुनिककाल (1850 ई. से अब तक)
आधुनिककाल को
हम पाँच प्रमुख भागों में बाँट सकते हैं। (एक प्रकार से इन युगों में हिंदी भाषा का विकास किया
गया।)
(i) पूर्व भारतेन्दु युग, (ii) भारतेन्दु युग, (iii) द्विवेदी युग, (iv) प्रेमचन्द युग, (v) स्वातन्त्र्योत्तर युग।
(i) पूर्व भारतेन्दु युग-
सन् 1800 से खड़ी बोली का यह काल आरम्भ हुआ। हिन्दी खड़ी बोली में गद्य साहित्य
का सृजन हुआ काव्य के क्षेत्र में खड़ी बोली का स्वरूप उर्दू प्रभावित था। इस युग
में ब्रजभाषा का प्रभाव स्थायी था।
(ii) भारतेन्दु युग–
सन् 1850 तक खड़ी बोली का स्वरूप निखरने लगा था। भारतेन्दु के प्रभाव से खड़ी
बोली का गद्य व पद्य दोनों साहित्य समर्थ होने शुरू हो गए थे। इस काल में
भारतेन्दु के अतिरिक्त प्रतापनारायण मिश्र, श्रीधर पाठक एवं अन्य
साहित्यकार भी खड़ी बोली को दिशा प्रदान कर रहे थे।
(iii) द्विवेदी युग (महावीर प्रसाद) -
खड़ी बोली के
विकास का यह तृतीय चरण था 1900 से 1925 तक द्विवेदीजी ने
खड़ी बोली को स्थिरता प्रदान की। द्विवेदी जी ने भाषा की अशुद्धियों को दूर किया, उसे परिमार्जित किया इस युग में महावीर प्रसाद द्विवेदी के अतिरिक्त
बाबू श्यामसुन्दर दास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला', सुमित्रानन्दन पन्त, महादेवी वर्मा आदि के सद् प्रयासों से खड़ी
बोली का परिमार्जित रूप निकलकर आया।
(iv) प्रेमचन्द युग-
इस युग में संस्कृत
में निष्ठ हिन्दी का प्रचलन आरम्भ हुआ। प्रेमचन्द के अतिरिक्त भगवतीचरण वर्मा, राहुल सांस्कृत्यायन, नागार्जुन, सुभद्रा कुमारी
चौहान, केदारनाथ अग्रवाल, शिवमंगल सिंह 'सुमन', डॉ० नगेन्द्र, हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ० धीरेन्द वर्मा
आदि साहित्य सृजन में तल्लीन थे।
(v) स्वातन्त्र्योत्तर युग -
स्वतन्त्रता
प्राप्ति के पश्चात् संविधान में हिन्दी राजभाषा के रूप में आरूढ़ हुई। विभिन्न
सरकारी कार्यालयों, आकाशवाणी, दूरदर्शन, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं का माध्यम हिन्दी हो गई। आज भी हिन्दी का
प्रभाव तेजी से बढ़ रहा है। विभिन्न शोध-प्रबन्ध, गद्य-पद्य लेखन
हिन्दी के विकास हेतु विश्वविद्यालयों की स्थापना आदि कार्य चल रहे हैं। निश्चय ही
हिन्दी का भविष्य उज्ज्वल है।
हिन्दी की उपभाषाएँ एवं बोलियाँ
हिंदी भारतीय गणराज की राजकीय और मध्य भारतीय-
आर्य भाषा है।सन्2001 की जनगणना के अनुसार, लगभग 25.79 करोड़ भारतीय हिंदी का उपयोग मातृभाषा के
रूप में करते हैं, जबकि लगभग 42.20 करोड़ लोग इसकी 50 से अधिक बोलियों में से एक इस्तेमाल
करते हैं।सन्1998 के पूर्व, मातृभाषियों की संख्या की दृष्टि से विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली
भाषाओं के जो आँकड़े मिलते थे, उनमें हिन्दी को तीसरा स्थान दिया जाता था।
हिन्दी भाषी क्षेत्र/हिन्दी क्षेत्र/हिन्दी
पट्टी— हिन्दी पश्चिम में अम्बाला (हरियाणा) से लेकर पूर्व में पूर्णिया (बिहार)
तक तथा उत्तर में बद्रीनाथ–केदारनाथ (उत्तराखंड) से लेकर दक्षिण में खंडवा (मध्य
प्रदेश) तक बोली जाती है। इसे हिन्दी भाषी क्षेत्र या हिन्दी क्षेत्र के नाम से
जाना जाता है। इस क्षेत्र के अंतर्गत 9 राज्य—उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाणा व हिमाचल
प्रदेश—तथा 1 केन्द्र शासित प्रदेश (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र)—दिल्ली—आते हैं।
इस क्षेत्र में भारत की कुल जनसंख्या के 43% लोग रहते हैं।
·
बोली— एक छोटे क्षेत्र में बोली जानेवाली भाषा बोली कहलाती है। बोली में
साहित्य रचना नहीं होती है।
·
उपभाषा— अगर किसी बोली में साहित्य रचना होने लगती है और क्षेत्र का विकास हो
जाता है तो वह बोली न रहकर उपभाषा बन जाती है।
·
भाषा— साहित्यकार जब उस भाषा को अपने साहित्य के द्वारा परिनिष्ठित सर्वमान्य
रूप प्रदान कर देते हैं तथा उसका और क्षेत्र विस्तार हो जाता है तो वह भाषा कहलाने
लगती है।
·
एक भाषा के अंतर्गत
कई उपभाषाएँ होती हैं तथा एक उपभाषा के अंतर्गत कई बोलियाँ होती हैं।
·
सर्वप्रथम एक
अंग्रेज़ प्रशासनिक अधिकारी जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने 1927 ई. में अपनी पुस्तक 'भारतीय भाषा सर्वेक्षण (A Linguistic Survey
of India)' में हिन्दी का उपभाषाओं व बोलियों में
वर्गीकरण प्रस्तुत किया। चटर्जी ने पहाड़ी भाषाओं को छोड़ दिया है। वह इन्हें
भाषाएँ नहीं मानते।
·
धीरेन्द्र वर्मा का वर्गीकरण मुख्यतः सुनीति कुमार चटर्जी के वर्गीकरण पर ही आधारित है। केवल उसमें कुछ ही संशोधन किए गए हैं।
जैसे—उसमें पहाड़ी भाषाओं को शामिल किया गया है।
· इनके अलावा कई विद्वानों ने अपना वर्गीकरण प्रस्तुत किया है। आज इस बात को लेकर आम सहमति है कि हिन्दी जिस भाषा–समूह का नाम है, उसमें 5 उपभाषाएँ वर 17 बोलियाँ हैं।
अनुवाद
अनुवाद शब्द ' अनु' उपसर्ग तथा 'वाद' शब्द के संयोग से बना हे।' अनु' उपसर्ग का अर्थ होता है
पीछे या अनुगमन करना तथा 'वाद'
शब्द का संबंध है वाद
धातु से,
जिसका अर्थ होता है कहना
या बोलना। इस प्रकार अनुवाद शब्द का शाब्दिक अर्थ तो होगा (किसी के) कहने
या बोलने के बाद बोलना।
आज अनुवाद शब्द को अंग्रेजी के Translation शब्द के पर्याय के रूप
में ग्रहण किया जाता है। अग्रेजी का शब्द भी लैटिन के दो शब्दों Trans तथा lation के संयोग से बना है जिसका
अर्थ होता है-पार ले जाना। वस्तुतः एक भाषा में कही गई बात को दूसरी भाषा
में ले जाया जाता है। अतः एक भाषा के पार (दूसरी भाषा में) ले जाने की प्रक्रिया
लिए ही ट्रांसलेशन शब्द अंग्रेजी में प्रचलित हो गया।
अनुवाद का अर्थ: अनुवाद एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा हम एक भाषा
में व्यक्त विचारों को दूसरी भाषा में व्यक्त करते हैं। जिस भाषा से अनुवाद जाता
है उसे स्रोत भाषा तथा जिस भाषा में अनुवाद किया जाता है उसे लक्ष्य
भाषा कहते है। उदाहरणार्थ, स्रोत भाषा में लिखी रवीन्द्रनाथ ठाकुर की
कहानी 'काबुलीवाला' का अनुवाद 'लक्ष्यभाषा' हिन्दी में किया जाता है। एक स्रोत
भाषा समझना हो तो अनेक लक्ष्य भाषाओं में समय-समय पर अनुदित हो सकती है। अनुवाद की
प्रक्रिया को अत्यंत सरल रूप में कह सकते हैं कि बंगला की कहानी पढ़कर उसे हिन्दी
में प्रस्तुत करना अनुवाद है।
अनुवाद की परिभाषा
3. कैटफोड : ‘एक भाषा की पाठ्य सामग्री को दूसरी भाषा की
समानार्थक पाठ्य सामग्री से प्रतिस्थापना ही अनुवाद है।’ 1.मूल-भाषा (भाषा) 2. मूल भाषा का अर्थ (संदेश) 3. मूल भाषा की संरचना (प्रकृति)
'अनुवाद' का महत्त्व
आज 'अनुवाद' हर शिक्षित व्यक्ति के जीवन का एक अनिवार्य अंग बन
चुका है। विज्ञान की प्रगति के साथ-साथ जो नये संचार माध्यम विकसित हो रहे हैं
उनका सही उपयोग और लाभ 'अनुवाद के बिना संभव नहीं। अब हम किसी एक नगर क्षेत्र या देश के निवासी
नहीं. पूरे विश्व समाज का एक भाग हैं। विश्व में स्थान-स्थान पर नई खोजें हो रही
है ज्ञान-विज्ञान के नये द्वार खुल रहे हैं, उन सबकी जानकारी, शुरू में ही एकदम संसार की सभी भाषाओं में नहीं मिल
पाती। हमारा देश अभी विकासशील है। यहाँ अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व का सारा ज्ञान सबसे
पहले (प्रायः) विकसित देशों की भाषाओं में पहुँचता है।
हम अपनी भाषा में उसका अनुवाद करके ही उपयोग
कर सकते हैं। संयोगवश विकसित देशों की भाषाओं में अंग्रेजी सर्वप्रमुख है हमारे समाचारपत्रों, आकाशवाणी, दूरदर्शन के पास
पहुँचने वाले सभी अन्तर्राष्ट्रीय समाचार बल्कि प्रमुख राष्ट्रीय समाचार भी पहले
अंग्रेज़ी में आते हैं।
पत्रों के संपादक, आकाशवाणी और दूरदर्शन
के समाचार विभाग के कार्यकर्ता उन्हें 'अनुवाद' द्वारा ही हमारी भाषा में हम तक पहुँचाते हैं। इसी
प्रकार, बड़े-बड़े उद्यमों, संस्थाओं, कार्यालयों आदि को अन्तर्राष्ट्रीय
क्षेत्र में सफल होने के लिए अपना काम-काज अंग्रेज़ी में चलाना पड़ता है।
आज भारतीय नागरिक 'अनुवाद’ के बिना उनकी योजनाओं, कार्यवाहियों तथा
गतिविधियों से तभी परिचित हो सकते हैं, जब 'अनुवाद' का सहारा लिया जाए।
आज हम यदि संस्कृत, अंग्रेजी और अरबी-फारसी आदि के महान, प्राचीन और आधुनिक
साहित्यकारों तथा उनकी रचनाओं से परिचित हैं तो केवल 'अनुवाद' के माध्यम से विभिन्न
जातियों, देशों और समाजों में
वैचारिक तथा सांस्कृतिक आदान-प्रदान का कार्य भी 'अनुवाद' द्वारा ही संभव है।
विशेष रूप से वर्तमान लोकतन्त्रीय राजनीति में
'अनुवाद' के बिना तनिक भी आगे
बढ़ पाना संभव नहीं है। विभिन्न राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के सम्बन्ध
में जो भी विचार-विमर्श होता है उसकी जानकारी हम तक अनुवाद के माध्यम से ही
पहुँचती है।
संक्षेप में, आज के विश्व नागरिक के रूप में हमारे लिए अनुवाद का
महत्त्व निर्विवाद है।
अनुवाद के महत्व
1. रचनात्मक कला (साहित्यादि) संवर्द्धन हेतु उपयोगी।
2. विदेशी भाषाओं के साहित्य से लाभान्वित होने के लिए अनुवाद की महत्ता
3. विज्ञान, तकनीक, प्रौद्योगिकी, खगोलशास्त्र आदि के ज्ञानार्जन हेतु आवश्यक।
4. विविध संस्कृतियों को जानने हेतु आवश्यक।
5. अन्तर्राष्ट्रीय एक्य स्थापित करने में महत्वपूर्ण
6. विविधता में एकता स्थापित करने हेतु उपयोगी।
7. सांस्कृतिक समृद्धि एवं प्रसार हेतु।
8. बहुमुखी प्रगति में भी अनुवाद की महत्वपूर्ण भूमिका
अनुवाद की आवश्यकता:
विश्व में करोड़ों भाषाएं बोली जाती हैं। पूरे
विश्व में ऐसा कोई भी देश नहीं जहां एक से अधिक भाषा नहीं बोली जाती हो । यह बात
अलग है कि उस देश में कई भाषाएं प्रमुखता प्राप्त होती है। वर्तमान में हम ऐसे
विश्व में रह रहे हैं जो की बहुभाषिकता वाला विश्व है। विश्व के एक चौथाई से कम
देशों में 2
भाषाओं को संवैधानिक
मान्यता मिली हुई है । लेकिन अगर व्यवहारिक स्तर पर इस दृष्टि से विचार किया जाए
तो विश्व में ऐसा कोई भी देश नहीं मिलेगा जहां अधिक भाषाएं बोली जाती हो । ब्रिटेन
, अमेरिका, फ्रांस, जापान और जर्मनी देशों
में मान्यता प्राप्त एक ही भाषा है। परंतु वहां पर मान्यता प्राप्त भाषा को छोड़कर
और प्रकार की भाषाओं का प्रयोग करने वाले लोग भी मिल जाते हैं। ब्रिटेन में पंजाबी, उर्दू,, गुजराती, जर्मन, पोलिश, इटालियन, ग्रीक स्पेनिश आदि
भाषाएं भी बोली जाती है| एक भाषा देश में प्रमुख जापान में भी चीनी और कोरियाई भाषा बोली जाती है|
भारत बहुभाषी समाज: जिस तरह पूरे विश्व में किसी भी देश में 1 से अधिक भाषाएं बोली
जाती हैं उसी तरह भारतीय समाज भी बहुभाषी समाज है| इस देश में सबसे अधिक भाषाएं बोली लिखी पढ़ी जाती है| भारत की बहू भाग सकता
को देखकर देश के चिंतक मैं यह बात धारणा कर गई कि किसी भी राष्ट्र के लिए
बहुभाषिकता उचित नहीं है । किसी देश की उन्नति तभी संभव है जब वह एक भाषी देश हो| अगर एक भाषी समाज है तो
वह देश उन्नति जल्दी करेगा| किंतु यह बस एक ठीक है| सच यह है कि बेल्जियम कनाडा जैसे देशों में एक से अधिक भाषाएं बोली जाती
हैं किंतु इसके बाद भी विकसित देश और उन्नत देश है| इसके विपरीत अल्बानिया ब्राजील मेक्सिको पुर्तगाल
जॉर्डन कोरिया लीबिया आदि देश एक भाषा वाले देश है परंतु फिर भी वह आर्थिक रूप से
पिछड़े हुए हैं।
1 आपसी विचार विनिमय के
लिए अनुवाद की आवश्यकताः अगर अनुवाद के उद्भव पर विचार किया जाए तो पता
चलेगा कि भाषा का जन्म व्यक्तियों में आपसी विचार विनिमय के प्रयत्न से हुआ और /
अनुवाद का जन्म दो भाषा-भाषी व्यक्तियों या समुदायों में विचार विनिमय संभव बनाने
के लिए किया गया। अनुवाद का प्रारंभ संभवतः ऐसे व्यक्तियों के दिमाग की उपज है, जो भाषा क्षेत्रों की
सीमा में रहने के कारण दो या अधिक भाषाओं के जानकार रहे हैं। और आवश्कता पड़ने पर
उन विभिन्न भाषाओं के व्यक्तियों के बीच दुभाषिए का काम करते रहे हैं।
2 दुभाषिए के लिए
अनुवाद की आवश्यकताः बहुत पुराने ज़माने के दुभाषिए ऐसे लोग रहे होंगे जो
मूल रूप से किसी अन्य भाषा के जानकार रहे होंगे, किंतु किसी अन्य 'भाषा के क्षेत्र में रहने के कारण वहाँ की भाषा भी
सीख गए होंगे। इस बात का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। वस्तुतः अनुवाद की
प्राचीनतम परंपरा का प्रारंभ भाषा के जन्म के कुछ समय बाद ही हो गया होगा। अनुवाद
की यह परंपरा बहुत समय तक मौखिक रही होगी बाद में लिपि के प्रचार बाद लिखित परंपरा
चली होगी। किंतु यह कथन मात्र अनुमान पर है। उतनी पुरानी परंपरा मिलने का सवाल
पैदा नहीं होता।
3 बहुभाषी समाज के लिए
अनुवाद की आवश्यकताः
(क) धार्मिक कारणः बहुभाषी समाज
में अनुवाद की आवश्यकता क्यों पड़ी? इसके संदर्भ में यह तर्क दिया जाता है कि पश्चिम में
अनुवाद की व्यवस्थित परंपरा के पीछे धार्मिक भावना रही है। यह बात इस आधार पर सही
मानी जा सकती है क्योंकि पश्चिम अनुवाद की परंपरा बाइबिल के अनुवादों से चली।
बाइबिल की पुरानी पोथी की भाषा हिब्रू है। मिस्र और एलेक्जैंन्द्रिया में ऐसे
बहुत-से यहूदी थे जो यूनानी भाषी थे, किंतु उन्हें हिब्रू नहीं आती थी। इनके लिए यूनानी
में पोथी के अनुवाद की आवश्यकता पड़ी। परिणामतः दूसरी तीसरी सदी ईस्वी में इसके कई
अनुवाद हुए। ऐसे अनुवादों में एक अनुवाद सेप्तुआंगित है। इसके बारे में प्रसिद्ध
है कि यह अनुवाद 72 अनुवादकों ने 72 दिन में पूरा किया था। यह शाब्दिक अनुवाद है, इसलिए इस अनुवाद की
शैली यूनानी भाषा की प्रकृत शैली से भिन्न है।
साहित्यिक कारणः साहित्यिक रोम में जब अनुवाद आरंभ हुआ तो यहाँ
अनुवाद की दो कारणों से आवश्यकता अनुभव हुई। एक कारण था धार्मिक और दूसरा कारण था
साहित्यिक,
तत्त्वदर्शन और
समाजदर्शन आदि के चिंतन प्रधान ग्रंथ। इसका अर्थ यह हो गया कि रोम में अनुवाद की
आवश्यकता केवल धार्मिक नहीं रही अपितु यह भी रही कि अपने देश के काव्य, नाटक आदि साहित्यिक
ग्रंथों को अधिक से अधिक लोग पढ़ सकें इसलिए उनका उन्होंने उस भाषा में अनुवाद
कराया जो वहाँ के लोग जानते थे। और अनुवाद की आवश्यकता इसलिए पड़ी कि लोग उस भाषा
में रचित ग्रंथों को नहीं समझ सकते थे। इस युग में न केवल साहित्यिक ग्रंथों का
अनुवाद किया गया अपितु समाज दर्शन व तत्त्वदर्शन से संबंधित ग्रंथों का अनुवाद भी
किया गया। जैसे 240 ईस्वी में लिवियस एन्द्रोनिकस ने होमर की ऑदिसी का लैटिन में
अनुवाद किया। यही नहीं, इस समय अनुवाद संबंधी गंभीर समस्याओं का भी अध्ययन किया गया। इस दृष्टि से
सिसरो का नाम लिया जा सकता है जो न केवल अनुवाद की कठिनाईयों से ही परिचित नहीं था
अपितु शब्दानुवाद की कमजोरियों से भी परिचित था।
4 ज्ञान-विज्ञानसंबंधी: ज्ञान-विज्ञान के
विभिन्न क्षेत्रों में अनुवाद की आवश्यकता पड़ती है। इस दृष्टि से सबसे पहले अरब
में अनुवाद कार्य हुआ। अरब के लोग ज्ञान-विज्ञान के विषयों का अनुवाद करने में
रुचि लेते थे। इसलिए उन्होंने अनुवादों के माध्यम से अपने वाङ्मय को संपन्न बनाने
का प्रयत्न किया। सबसे अधिक अनुवाद भारतीय और यूनानी भाषाओं की रचनाओं के किए गए।
अरबों को जैसे ही संपन्न संस्कृत वाङ्मय का पता चला उन्होंने सिंधी ब्राह्मणों की
सहायता से अनुवाद करवाया। ये अनुवाद मूलतः आठवीं, नौवीं, दसवीं सदियों में हुए। अंकगणित, ज्योतिषशास्त्र, रेखागणित, खगोलविज्ञान, ज्योतिष, चिकित्सा, सर्पशास्त्र, संगीत, रसायनशास्त्र, जादू, भाषणकला, नीति कथा आदि के
ग्रंथों का अनुवाद है। पंचतंत्र तक का अनुवाद किया गया। नवीं तथा दसवीं सदी में तो
प्लेटो और अरस्तु आदि की रचनाओं का भी अनुवाद किया गया।
(भारत में भी अनुवाद कार्य हुआ। किंतु इसके
ग्रंथ मिलते नहीं। इसका पहला कारण यह था कि भारत साहित्य विज्ञान में बहुत आगे था
इसलिए यहाँ के ग्रंथों की अनुवाद करने की आवश्यकता नहीं पड़ी।) वह अदाता नहीं दाता
था। अनुवाद की यह परंपरा आवश्यकता अनुसार बढ़ती चली गई और आज भी निरंतर जारी है।
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