THE LEARNERS COMMUNITY
5th Semester History (Issues in 20th C World History I)
Unit - 3(A) 1917 की रूसी क्रांति के मूल स्रोत
वर्ष 1917 की रूसी क्रांति मुख्य रूप से पिछड़ी अर्थव्यवस्था, किसानों एवं मज़दूरों की दयनीय स्थिति, निरंकुश एवं स्वेच्छाचारी शासन के अत्याचार का परिणाम थी।sss
सन 1917 की रूस की क्रांति विश्व इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है। इसके परिणामस्वरूप रूस से ज़ार के स्वेच्छाचारी शासन का अन्त हुआ तथा रूसी सोवियत संघात्मक समाजवादी गणराज्य (Russian Soviet Federative Socialist Republic) की स्थापना हुई। यह क्रांति दो भागों में हुई थी - मार्च 1917 में, तथा अक्टूबर 1917 में। पहली क्रांति के फलस्वरूप सम्राट को पद-त्याग के लिये विवश होना पड़ा तथा एक अस्थायी सरकार बनी। अक्टूबर की क्रांति के फलस्वरूप अस्थायी सरकार को हटाकर बोलसेविक सरकार (कम्युनिस्ट सरकार) की स्थापना की गयी।
1917 में हुई रूसी क्रांति प्रमुख क्रांति के रूप में विश्व के सामने आई। 1917 में सोवियत राज्य की स्थापना के साथ चरम पर पहुंची जिसे सोवियत समाजवादी गणराज्य संघ (यूनियन ऑफ सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक -- यूएसएसआर) के नाम से जाना गया। 1917 की दो सफलता पूर्ण क्रांतिया सामूहिक रूप से रूसी क्रांति को प्रदर्शित करती है।
1. रूस का औद्योगिक विकास
रूस में औद्योगिक विकास निकोलस प्रथम व कैथेराइन के शासन काल से ही प्रारम्भ हो गया था, जबकि उन्होंने रूस का आधुनिकीकरण किया। औद्योगिक विकास के कारण, रूस में मजदूरों की संख्या में वृद्धि हुई। इस समय उनके संख्या 25 लाख हो गई थी। अब वे नगरो में रहने लगे थे। जब उनके मालिक उनका शोषण करने लगे तो वे अपने मालिक से अपने अधिकारों की मांग करने लगे। मालिक उन्हें कम मजदूरी देकर उनसे अधिक से अधिक काम लेने का प्रयास करते थे।
कम मजदूरी मिलने के कारण, मजदूर नगरों की गन्दी बस्तियों में निवास करने लगे। उन्हें अपने श्रमिक संघ भी बनाने का अधिकार नहीं था। अतः उन्होंने अपने उचित अधिकारों की मांग सरकार के समक्ष प्रस्तुत की। वैसे 1885 से 1887 के मध्य शासन द्वारा श्रमिक कानून अवश्य बनाए गए; परन्तु उनसे श्रमिकों की अवस्था में विशेष परिवर्तन नहीं हुआ। शासन मृतक उद्योगपतियों के ही पक्ष में रहा। अधिक असंतोष के कारण श्रमिक अब क्रांति करने के लिये उद्यत हो रहे थे।
2. भूमि वितरण की जटिल समस्या
रूस की अधिकांश जनता कृषि पर आधारित थी। कृषक दासों की मुक्ति से रूस की कृषि सम्बन्धी समस्या का समाधान नहीं हुआ था। यद्यपि कृषकदासों को सामन्तवादी नियन्त्रण से अवश्य मुक्त कर दिया गया था तथापित भूमि वितरण की समस्या, ज्यों की त्यों बनी हुई थी। इस प्रणाली के अन्तर्गत किसानों को भूमि कम मिली, जो उनकी जीविका उपार्जन के लिये पर्याप्त नहीं थी। इस कारण उनकी गरीबी ज्यों की त्यों बनी रही।
इसके अलावा कृषि के अविकसित साधन भी उनकी दरिद्रता को बढ़ा रहे थे। कृषक भूमि व्यवस्था में सुधार करना चाहते थे, परन्तु सरकार कृषि व्यवस्थाएँ सुधार करने के पक्ष में नहीं थी। 1906 में स्टोलीपिन (Slolypin) ने कुछ सुधार किये, परन्तु उनसे भी दरिद्र कृषकों को विशेष लाभ नही हुआ, केवल धनी कृषक ही लाभान्वित हुए। इस प्रकार कृषकों में असन्तोष बढ़ रहा था ।
3. शासकों का निरंकुश शासन-प्रायः
यह निर्विवाद कहा जाता है कि शासकों हर जगह निरंकुश हो रहा है। परन्तु रूस में बीसों शताब्दी में भी निरंकुश शासन रहा है। जबकि विश्व में प्रजातन्त्र का प्रभाव दिनों दिन बढ़ रहा था। इसके अलावा जहाँ राजतन्त्र बचा भी था तो वहाँ भी प्रबद्ध स्वच्छाचारी शासन प्रारम्भ हो गया था। अतः इस प्रकार के वातावरण में रूस के लोग जार के निरंकुश शासन को सहन करने के लिये उद्यत नहीं थे।
एलेक्जेण्डर द्वितीय ने उदारवादी दृष्टिकोण अपनाकर अपने शासन काल में कुछ सुधार अवश्य किये थे। उसने कृषक दासों को मुक्त कर स्थानीय शासन सम्बन्धी कुछ अधिकार भी स्वीकृत किये थे। परन्तु इन सुधारों के परिणामस्वरूप सामन्त तथा धनवान जमींदार जार के इतने विरोधी हो गये थे कि उसे पुनः प्रतिक्रियावादी नीति अपनाने को बाध्य होना पड़ा। उसके उत्तराधिकारी तो निरंकुश शासन में बहुत आगे बढ़ गये थे। उनके कठोर शासन के विरूद्ध कुछ क्रांति कारी तथा आतंकवादी संस्थाओं की स्थापना हुई। इन संस्थाओं की सहायता से रूस की आम जनता जार के निरंकुश शासन के विरूद्ध उठ खड़ी हुई।
रूस का जार निरंकुश एवं स्वेच्छारी था। अपने दरबार के कुछ गिने-चुने व्यक्तियों की सहायता से ही जनता पर शासन करता था। उसकी दृष्टि में डयूमा में डयूमा (संसद) का कोई महत्व नहीं था। रूसी डयूमा केवल नाम मात्र की संसद थी। जार निकोलस द्वितीय न तो 'सम्पूर्ण रूस के एकराट' की उपाधि धारण कर ली थी। जनता उसे 'राष्ट्र का पिता' कहती थी।
4. डयूका की घोषणा
1905 के 'खूनी रविवार' की घटना के उपरान्त निकोलस द्वितीय ने सुधारवादियों को सन्तुष्ट करने की दृष्टि से डयूमा की घोषणा की। डयूम के लिये निर्वाचन निरन्तर होते रहे। परन्तु जार के समर्थकों का बहुमत न आने के कारण, वह उसे निरन्तर भंग करता रहा। इससे सुधारवादी असन्तुष्ट हो गये।
5. यूरोप के पश्चिमी राष्ट्रों में प्रजातान्त्रिक सरकार की स्थापना
रूस के समाज में घोर असमानता थी। रूस में समाज मुख्यतः दो वर्गों में विभाजित था. (1) अधिकारी वर्ग (2) अधिकार हीन वर्ग।
अधिकार युक्त वर्ग में जार और उसका परिवार, सामन्त, कुलीन व धर्माधिकारी तथा उच्च अधिकारी थे। अधि कार रहित वर्ग में कृषक, श्रमिक और सामान्य व्यक्ति थे। अधिकार युक्त वर्ग के लोग विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत करते थे। उन्हें सभी प्रकार की सुख सुविधाएँ प्राप्त थीं। देश की अधिकांश भू सम्पत्ति पर इसी वर्ग का अधिकार था। अधिकार हीन व्यक्तियों की स्थिति बड़ी दयनीय थी। कठोर परिश्रम करने के बाद भी लोगों को भरपेट भोजन नहीं मिलता था। सामन्त तथा कुलीन वर्ग के लोग मजदूरों तथा श्रमिकों का शोषण करते थे। अतः कृषकों तथा श्रमिकों में भी काफी असन्तोष था।
6. श्रमिकों का शोषण
कृषि का कुप्रबंधन तथा सामन्ती व्यवस्था ने किसानों के शोषण में कोई भी कसर नहीं छोड़ी। फलस्वरूप ग्रामीण लोग शहरों की ओर पलायन करने लगें, जिसे शहर के कारखानों में मजदूर की संख्या में वृद्धि होने लगी थीं और यह गन्दी बस्तियों में रहकर नारकीय जीवन को व्यतीत करने में मजबूर हो गयें। शासन मजदूरों की समस्या के प्रति संवेदनहीन थीं। पूंजीपतियों के शोषण से मजदूर वर्ग त्रस्त हो गया। स्थिति बदतर होती गई और सन् 1905 ई. में मजदूरों ने विशाल जुलूस का आयोजन कर सेंटपीटर्सवर्ग का शासन अपने हाथ में ले लिया।
7. नागरिक अधिकारों का दमन और जागृति
1905 में हुई हिंसक क्रांति से घबराकर निकोलस द्वितीय ने अक्टुबर 1905 ई. में क्रांति, संविधान, संसद, मतदान, निर्वाचन, मौलिक अधिकारों को और बंदी क्रांतिकारियों को मुक्त करना स्वीकार कर लिया था, परंतु अवसर मिलते ही वह पुनः दमन करने लगा। उसने चार बार ड्यूमा को भंग किया और क्रांतिकारी प्रजातंत्र की मांग को दबाया। अतः जनता में अपने अधिकारों की शक्ति का जागरण हुआ। उन्होंने जारशाही को जड़मूल से हटाने का फैसला कर लिया था।
8. क्रांति कारी साहित्य
रूसी लेखकों एवं साहित्यकारों ने भी 1917 की क्रांति में महत्वपूर्ण योगदान दिया। यद्यपि जारशाही ने पाश्चत्य विचारों के प्रसार पर रोक लगाने का भरसक प्रयास किया, परन्तु उसे सफलता नहीं मिली तथा रूस में पाश्चात्य यूरोप के उदारवादी विचारों का प्रवेश होने लगा। रूस में ऐसे अनेक लेखक हुए जिनकी रचनाओं ने रूसियों के विचारों में उथल-पुथल मचा दी। टालस्टाम, तुर्गनेव, डोस्टोइवस्की, गोकी, बाकुनिन आदि रूसी लेखको की रचनाओं से शिक्षित रूसी बड़े प्रभावित हुए।
टालस्टाप के विचारों से रूस में क्रांति कारी भावना के विकास में बहुत सहायता मिली। वाकुनिन ने अराजकतावादी विचारधारा का प्रचार किया। इस लेखकों की रचनाओं ने रूसी जनता के विचारों को बड़ा प्रभावित किया, विशेषकर युवा वर्ग पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा। परिणामस्वरूप रूसी जनता भी सुधारकों की मांग करने लगी। जब जारशाही ने सुधारों की मांग को ठुकरा दिया, तो जनता में तीव्र आक्रोश उत्पन्न हुआ।
9. 1917 की रूसी क्रांति
यद्यपि 1905 की रूसी क्रांति प्रत्यक्ष रूप में असफल हो गयी थी । किन्तु असफल होकर भी इसने रूसी जनता को किसी न किसी रूप में अवश्य प्रभावित किया । इस क्रांति ने जनता में राजनीतिक जागरूकता उत्पन्न कर दी । अर्थात् इसने जनता को राजनीतिक अधिकारों से परिचित करा दिया। अब उसे जनतांत्रिक शासन और मताधिकार का ज्ञान हो गया । अत: उसने रूस मे लोकतंत्रात्मक शासन स्थापित कर सत्ता अपने हाथों में लेना चाहा। जिसके लिए उसने एक बार पुन: क्रांति करने का मन बनाया ।
इसके अलावा 1905 की क्रांति में जो कमी या भूल हो गयी थीं, उस अनुभव का पूरा लाभ उठाते हुए जनता ने 1917 में ऐसी सुनियोजित एवं व्यवस्थित क्रांति की, जो अपने लक्ष्य में पूर्णतया सफल रही। इस प्रकार 1917 की रूसी क्रांति की सफलता के पीछे 1905 की रूसी क्रांति का योगदान निश्चित रूप से था।
10. मध्यम वर्ग और व्यावसायिक क्रांति
रूस के आधुनिक शिक्षा के प्रसार से मध्यम वर्ग के लोगों के विचारों में क्रांति कारी परिवर्तन हुआ। पाश्चात्य साहित्य से रूस के मध्यम वर्ग के लोग बड़े प्रभावित हुए। अब उन्हें अपनी हीन दशा तथा शासन की बुराईयों का स्पष्ट ज्ञान हुआ और वे प्रजातान्त्रिक शासन की मांग करने लगे। इस मध्यम वर्ग ने मजदूरों में जागृति उत्पन्न करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
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