DU SOL 2nd Semester History of India 300-1200 Important Question: 300 से 1200 ईस्वी की अवधि में मिली साहित्य साक्ष्यों पर चर्चा करें। Complete Answer

  DU SOL 2nd Semester History of India 300-1200

Important Question:

300 से 1200 ईस्वी  की अवधि में मिली साहित्य साक्ष्यों पर चर्चा करें।


Answer: अभिलेख 

अभिलेख के अध्ययन को पुरालेख अध्ययन या पुरालिपि - अध्ययन ( एपिग्राफी ) कहा जाता है । अभिलेख ऐसा लेखन है जो पत्थर , लकड़ी , धातु , हाथी दांत की पट्टियों , कांस्य की मूर्तियों , ईंटों , मिट्टी के गोलों , मिट्टी के बर्तनों आदि पर उकेरा जाता है । पुरालेख अध्ययन में अभिलेख के इकाई को समझना और उसमें मौजूद जानकारी का विश्लेषण करना शामिल है । तीसरी शताब्दी के अंत तक संस्कृत उत्तरी भारत में अभिलेखों की भाषा के रूप में प्रचलित हो गयी । इसने धीरे - धीरे न केवल उपमहाद्वीप में बल्कि दक्षिण - पूर्व एशिया जैसे क्षेत्रों में भी उच्च संस्कृति , धार्मिक और राजनीतिक शक्ति से जुड़ी भाषा का दर्जा प्राप्त किया । गुप्तोत्तर काल में क्षेत्रीय भाषाओं और लिपियों का विकास हुआ । यहाँ तक कि संस्कृत के अभिलेखों में स्थानीय बोलियों का प्रभाव गैर - संस्कृत के वर्तनी और शब्दों के प्रयोग में दिखाई देता है । पल्लव वंश के शासन के दौरान तमिल दक्षिण भारतीय अभिलेखों की महत्त्वपूर्ण भाषा बन गई । मध्ययुगीन काल में दक्षिण भारत के विभिन्न हिस्सों में मंदिर की दीवारों पर सैकड़ों तमिल अभिलेख उत्कीर्ण किए गए । सबसे पहले कन्नड़ अभिलेख छठी / सातवीं शताब्दी के अंत में मिले ।


पत्थरों पर भूमि अनुदान पत्र एक महत्त्वपूर्ण श्रेणी है । ऐसे हजारों अभिलेख उपलब्ध हैं , जिनमें से कुछ लेकिन ज्यादातर एक या एक से अधिक ताम्रपत्रों ( तांबे की प्लेटों ) पर उत्कीर्ण हैं । उनमें से अधिकांश राजाओं द्वारा ब्राह्मणों और धार्मिक प्रतिष्ठानों को दिए गए अनुदान हैं । मध्ययुगीन काल के दौरान ताम्रपत्र अनुदान संख्या में वृद्धि हुई । शाही अभिलेखों में प्रशस्तियाँ शामिल हैं जो शाही वंशावली और राजनीतिक घटनाओं पर प्रकाश डालती हैं । अधिकांश शाही अभिलेख ( और कुछ निजी भी ) आमतौर पर प्रशस्ति के साथ शुरू होते हैं । कुछ अभिलेखों में तो केवल शासक की उपलब्धियों का विवरण मिलता है ।

साहित्यिक साक्ष्यों की तुलना में अभिलेखों में स्थायित्व का लाभ है । वे आमतौर पर उन घटनाओं के समकालीन होते हैं जिनके बारे में वे बोलते हैं और उनकी जानकारी को एक समय और स्थान से जोड़ा जा सकता है । उनमें किए गए परिवर्तन और परिवर्धन का पता आमतौर पर बिना कठिनाई के लगाया जा सकता है । अभिलेखों का उपयोग राजनीतिक संरचनाओं , प्रशासनिक और राजस्व प्रणालियों से संबंधित जानकारी के एक प्रमुख स्रोत के रूप में किया गया है । वे अधिवास प्रतिरूपों , कृषि संबंधों , श्रम के प्रकार और वर्ग और जाति संरचनाओं के इतिहास पर भी प्रकाश डालत्ते हैं । 

300-600 की अवधि के लिए अभिलेखीय साक्ष्यों में ज्यादातर शाही भूमि अनुदान शामिल हैं । ब्राह्मणों को दिए जाने वाले गाँवों को अग्रहार या ब्रह्मदेय के रूप में जाना जाता था । दसवीं शताब्दी ईस्वी तक , अधिकतर शाही भूमि अनुदान ब्राह्मणों को दिए गए । अभिलेख 600-1200 ईस्वी के बीच की अवधि के लिए भी सूचना का एक प्रमुख स्रोत है । जहाँ तक इन साक्ष्यों की विशेषताओं का सवाल है , ये ज्यादातर ' चरित ' साहित्य का एक संक्षिप्त रूप हैं , जो इस अवधि में काफी लोकप्रिय हुआ ।

सिक्के 

सिक्कों के अध्ययन को ‘ न्यूमिज़माटिक्स ' कहा जाता है । आधुनिक समय में मुद्रा का प्रयोग , विनिमय के माध्यम , मूल्य के भंडार , एक इकाई और भुगतान के माध्यम के रूप में कार्य किया जाता है । माल या सेवाओं के आदान - प्रदान के लिए मुद्रा को स्वीकार किया जाता है । पूर्वी दक्कन में सातवाहन काल के बाद , निचली कृष्णा घाटी ( तीसरी - चौथी शताब्दी ) के इक्ष्वाकुओं ने सातवाहन सिक्कों के अनुरूप सीसा ( लेड ) के सिक्के जारी किए । गुप्त राजाओं ने अच्छी तरह से निष्पादित सोने के सिक्के जारी किए । दीनार के रूप में जाने जाने वाले ये सिक्के ज्यादातर उत्तर भारत में पाए गए हैं । 

इनमें राजा के शासनकाल को दर्शाया गया है । समुद्रगुप्त और कुमारगुप्त प्रथम के सिक्कों के उदाहरण उल्लेखनीय हैं । समुद्रगुप्त को वीणा बजाते हुए दिखाया गया है । गुप्त सिक्कों के पीछे की ओर धार्मिक चिन्ह हैं जो राजाओं की धार्मिक संबद्धता को दर्शाते हैं । स्कंदगुप्त के शासनकाल के बाद , सोने के सिक्कों की शुद्धता में गिरावट आई । गुप्त राजाओं ने चांदी के सिक्के भी जारी किए किंतु तांबे के सिक्के बहुत कम हैं ।


विनिमय और प्रमाणीकरण के अतिरिक्त सिक्के और मुहर सार्वजनिक संदेश देने वाला माध्यम भी है । गुप्त राजाओं ने बड़ी संख्या में सोने के सिक्के जारी किए , जिन्हें दीनारस ( रोमन डेनिरियस के बाद ) कहा जाता है । चंद्रगुप्त द्वितीय , कुमारगुप्त प्रथम , स्कंदगुप्त और बुधगुप्त जैसे शासकों ने भी चाँदी के सिक्के जारी किए जो वजन में पश्चिमी क्षत्रपों द्वारा जारी किए गए सिक्कों के समान थे । गुप्तकाल के तांबे के सिक्के दुर्लभ हैं । समकालीन राजवंशों के सिक्कों में कदंब , इक्ष्वाकु , विष्णुकुंडि और ' नाग ' के सिक्के शामिल हैं । बसाढ़ ( प्राचीन वैशाली ) , भीता और नालंदा जैसे स्थलों पर बड़ी संख्या में मुहरें मिली हैं ।


अन्य पुरातात्त्विक अवशेष में यद्यपि 300-600 की अवधि के कई वास्तुशिल्प और मूर्तिकला के अवशेष हैं , उनमें से अधिकांश धार्मिक प्रकृति के हैं । पुराना किला , अहिच्छत्र , बसाढ़ , भीता , अरिकामेडु और कावेरीपट्टिनम जैसे स्थलों पर खुदाई से महत्त्वपूर्ण पुरावशेष प्राप्त हुए हैं । गुप्त काल के शहरों से संबंधित पुरातात्विक साक्ष्य बहुत कम हैं । दिल्ली पुराना किला में , पुन : उपयोग की गई ईंटों से बनी संरचनाओं के अवशेष थे । गुप्त काल के आरंभ का एक सीढ़ीदार मंदिर अहिच्छत्र ( बरेली जिला , यू.पी. ) में पाया गया । 

गुप्त काल के संरचनात्मक ढाँचे को हुलासखेड़ा , लखनऊ जिला में प्राप्त हुआ । मध्य गंगा घाटी में राजघाट में पाई गई , ब्राह्मी लिपि में अंकित एक मुहर उल्लेखनीय है । पटना के कुम्रहार में एक बौद्ध मठ के अवशेष मिले हैं । निचली गंगा घाटी में , महास्थानगढ ( बांग्लादेश के बागुरा जिले में ) में पकी हुई ईंट से बने अवशेष प्राप्त हुए । बसाढ़ ( प्राचीन वैशाली ) में हुए उत्खनन में सैकड़ों मुहरों के प्रमाण मिले हैं ।



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