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6th Semester Education Sec
Education: Media in Education
Unit 1 - प्रदर्शन कला और दृश्य कला के माध्यम से शिक्षा संचार
कला से क्या आशय है ? इसके विभिन्न आयामों की विवेचना करें।
कला का अर्थ- कला शब्द का अर्थ आर्ट (Art) है। यह लैटिन भाषा के आर्स (Arc) शब्द से बना कला के शिल्प (Craft) अथवा क्षैपुण्य विशेष है। प्राचीन भारतीय मान्यताओं में भी कला के लिए शिल्प और कलाकार के लिए शिल्पी शब्द का प्रयोग मिलता है।
कला का अर्थ अभी तक निश्चित नहीं हो पाया है यद्यपि इनकी अनेको परिभाषाएँ दी गई है। कला के अर्थ को समझने के लिए उसकी संभावनाओं को समझना आवश्यक है। कला मानव मस्तिष्क की सबसे ऊंची और प्रखर कल्पना है। कला प्रदान करती है। मानव हृदय में सुखद भाव एवं अर्थपूर्ण अनुभूतियाँ उत्पन्न करती है।
यूरोपीय शास्त्रियों ने भी कला में कौशल को महत्त्वपूर्ण माना है। कला एक प्रकार का कृत्रिम निर्माण है जिसमें शारीरिक और मानसिक कौशलों का प्रयोग होता है।
कला के विभिन्न आयाम एवं शिक्षा में इसकी उपयोगिता कला का वर्गीकरण कला
(क) दृश्य कलाएँ (Visual Art)
• चित्रकला (Painting)
• मूर्तिकला (Sculpture)
• वास्तुकला (Architecture)
(ख) प्रदर्शनरकारी कलाएँ (Performig Art)
• काव्य कला (Poetry)
• संगीत (Music)
(क) दृश्य कलाएँ (Visual Art) –
• चित्रकला (Painting) - समस्त शिल्पों और कलाओं में प्रधान तथा सर्वप्रिय चित्रकला को माना गया है। चित्रकला भौतिक, दैविक एवं आध्यात्मिक भावना का समन्वित रूप ही अभिव्यक्ति है। आधुनिक चित्रकारी कल्पना में पूर्ण विश्वास रखता है। भारत में अमृता शेरगिल, रवीन्द्रनाथ टैगोर, राजा, सूजा हलधर, यामिनीराय, एम एफ हुसैन, सतीश गुजराल आदि प्रमुख है।
• मूर्तिकला (Sculpture) - भारत में मूर्तिकला को अत्यन्त प्रतिष्ठित माना गया है। भारतीय मूर्तिकला की अद्भुत कला को देखकर सारा विश्व मंत्रमुग्ध है। मंदिरों में निर्मित मूर्तिकला अलग - अलग शासन काल और अलग - अलग सभ्यता संस्कृति से हमें अवगत कराती है।
मूर्तिकार, मिट्टी, पत्थर प्लास्टर ऑफ पेरिस, धातु, लकड़ी. नारियल पर मूर्ति बनाकर उन्हें सजाकर रंग भर कर उन्हें ऐसा बना देता है कि मानों वह सजीव खड़ा हो। तंजाकर के मन्दीश्वर स्वामी के मन्दिर की गणेश मूर्ति मनल्लूर के विषय मन्दिर की रति व कामदेव की मूर्ति आदि कला के उत्कृष्ट नमूने हैं।
भारतीय मूर्तिकला के तीन प्रमुख प्रयोजन हैं - धार्मिक, स्मारक और अलंकरण। आधुनिक भारतीय मूर्तिकारों में देवी प्रसाद रामचौधरी, राखो चौधरी, धनराज भगत और राम किंकर का नाम आता है।
• वास्तुकला (Architecture) - वास्तुकला का साधारण अर्थ है उन भवनों की निर्माणकला जहाँ निवास किया जाता है। सुनियोजित नगर निवेश, पक्की ईंटों के बने सार्वजनिक एवं निजी सड़कें, जल विकास की नालियाँ, सिन्धु सभ्यता की वास्तुकला के महत्त्वपूर्ण उदाहरण है।
प्रमुख शास्त्रकारों ने वास्तुकला की तीन आकार शैलियों का उल्लेख किया है नागर (ब्राह्म से सम्बन्धित) द्रविड़ (विष्णु से सम्बन्धित) और बेसर (महेश से सम्बन्धित) अन्य कलाओं के भाँति इस कला का सम्बन्ध भी सौन्दर्य से है।
(ख) प्रदर्शनकारी कलाएँ (PerformingArt)
1. काव्यकला (Poetry) - काव्य विचारों भावों का संप्रेषण है भिन्न - भिन्न समय कालों में विभिन्न वर्गों के कवियों में काव्य प्रेरणा काव्य भिन्न - भिन्न होते हैं| जैसे ब्राह्म जाति और जगत के किसी दृश्य घटना, परिस्थिति या अवस्था का प्रभाव किसी अन्य व्यक्ति, आचार्य या मित्र की प्रेरणा किसी विचार या जीवन दर्शन का अलौकि प्रणय, विरह या शोक की अनुभूति।
2. संगीत कला (Music Art) - संगीत के विभिन्न आयाम हैं - गायन, वादन व नृत्य गायन के क्षेत्र में तानसेन, बैजू से लेकर पंडित भीत सेन जोशी, पंडित जसराज के नाम विशिष्ट सम्मानीय है।
कला और शिक्षा के बीच सम्बन्ध
शिक्षा में कला – कला के विभिन्न आयामों को समझने के बाद शिक्षा में कला के स्थान और महत्व की विवेचना विविध और व्यापक परिदृश्य में निम्न प्रकार है
कला सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन के उत्कर्ष की महत्वपूर्ण विधा है। विषय में सजीवता की अनुभूति को जागृत करने में कला विशिष्ट भूमिका निभाती है। पाठ्यपुस्तकों में मात्र तथ्यों और सूचनाओं का ही संग्रह हो तो विषय वस्तु नीरस और उबाऊ हो जाता है।
ऐसी स्थिति में शिक्षा बोझ बन जाता है। कला ऐसी स्थिति में माध्यम के रूप में संज्ञानात्मक समझ का विकास करता है। चित्रों का माध्यम से विषय वस्तु जिज्ञासा जगाते है। बालक शैशवावस्था से ही चित्रों को देखकर वस्तुओं को पहचानता है।
चित्रों के द्वारा अध्ययन कर विद्यार्थी विषयवस्तु की सरलता तथा स्पष्टता से सीखने में सक्षम होते हैं चित्रों द्वारा शिक्षार्थी(Student) में रचनात्मक क्षमता सौन्दर्य बोध व आलोचनात्मक समझ विकसित होती है।
कला ज्ञानेन्द्रियों को उत्तेजित करती है जिससे मस्तिष्क क्रियाशील होता है और विषय वस्तु की नीरसता को बहुत हद तक खत्म करता है। कला संवेदनाओं के माध्यम से बालक के व्यवहार को संशोधित और परिमार्जक करता है।
विद्यालयी शिक्षा के उद्देश्य बालक को सिर्फ पुस्तक ज्ञान देता ही नहीं, अपितु उसे भविष्य में सामाजिक को वहन करने योग्य भी बनाना है। कला शिक्षा के क्षेत्र में एक उपयोगी उपागम है।
यह बालक के मस्तिष्क को संवेदनशील बनाती है। संवेदनशीलता शिक्षा के सकारात्मक पक्ष को परिभार्जित करता है। तथा व्यक्तित्व को खंडित होने से बचाता है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि कला संगीतपूर्ण संबंध विकसित होने में सहायता करता है।
कला के माध्यम से ही बालक-मन को हर समाज, हर देश की सभ्यता संस्कृति रूचि अनुभूति, जीवन दर्शन से परिचित कराया जा सकता है।
कल्पनाशीलता कला का जन्म देता है। दूसरे शब्दों को कल्पनायशीलता निहित है और कल्पना हीं सृजनात्मकता का आरम्भ है। अतः हम कह सकते हैं कि सृजन कला का परिणाम है।
”अल्बर्ट आइंस्टीन”के शब्दों में” कल्पना ज्ञान से ज्यादा महत्वपूर्ण है” अल्बर्ट आइंस्टीन के इस कथन से भी कल्पना के महत्व को ज्ञान के संबंध में समझा जा सकता है।
कला का समाज पर प्रभाव
”प्रत्येक समाज की अपनी एक कला स्वरूप विशेषता होती है।”सामाजिक परिवेश कला के स्वरूप पर अपना प्रभाव अंकित करती है। सामाजिक व्यवस्था के परिवर्तन के साथ भी परिवर्तित होती है। जैसे अल्लमीर चित्रकला में तत्कालीन मिथों परम्पराओं की झलक मिलती है।
प्रत्येक देश में उसके सामाजिक रीति - रिवाजों, धर्म और विश्वास में वहाँ की कला प्रेरित होती है, जैसे - इजिप्ट का पिरामिण्ड विभिन्न काल की मूर्तियों, वास्तुकला, नाट्यकला, साहित्यकला (प्रेमचन्द का साहित्य, निराला का साहित्य, टैगोर का साहित्य आदि)।
कुछ अभिव्यक्तियों पर सरकार / समाज नियंत्रण का समर्थक होता है|
इससे स्पष्ट होता है कि कला का प्रभाव समाज पर अवश्य पड़ता है|
इसलिए तो कहा गया है, कला समाज का हिस्सा है कला के माध्यम से एक कलाकार सामाजिक परम्पराओं, रीति रिवाजों और नैतिक मूल्यों को वास्तविक जीवन में रंग भरने का कार्य करता है। समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर कला का विकास किया गया है। कला का सम्बन्ध सृजनशीलता से है, क्रियात्मकता से है ना कि विध्वंसकता से है इसलिए हम कह सकते हैं कला समाज को जोड़ने का कार्य करता है न कि तोड़ने का।
नाटक कला क्या है ? इसके विभिन्न तत्वों का वर्णन करें।
नाटक का अर्थ (Meaning of Drama) –
श्रव्य - दृश्य कला (Audio - VisualArt) - नाटक एक स्वतंत्र साहित्य विद्या है और इसका प्रस्तुतीकरण एक उत्कृष्ट कला है। नाटक का प्रभाव इसकी प्रस्तुतीकरण और प्रदर्शन पर निर्भर करता है नाटक एक प्रदर्शनकारी कला है, जिसे मंच पर किसी घटना का वास्तविक रूप को अनुकरण करके दिखलाया जाता है।
मनुष्य प्रारंभ से हीं प्रकृति का अनुकरण करता रहा है। जैसे - जैसे चेतना विकसित हुई, अनुकरण की क्रिया के फलस्वरूप उसके दिमाग में कई प्रकार की घटनाओं का समावेश होता है। इसलिए नाटक को विभिन्न घटना का अनुवृत्ति कहा जा सकता है।
विभिन्न आयामों के द्वारा नाटक का मंचन किया जाता है, जिससे मुखा व्यक्ति, अभिनय, वेशभूषा आदि के उपयुक्त संयोजन द्वारा नाटक का यथार्थ रूप में मंच पर होते हुए दिखलाया जाता है, जिससे लोग मानस पटल पर उस घटना को काल्पनिक रूप से ही विषयवस्तु से वाकिफ हो जाते है।
नाटक की अवधारणा (Concept of Drama)- भारत में ”भरतमुनि” का नाट्यशास्त्र लगभग 3000 वर्ष पुरानी सबसे प्रमाणिक पुस्तक मानी जाती है। ”ड्रामा” अंग्रेजी का शब्द है, जिसे ग्रीक भाषा से लिया गया है जिसका अर्थ एक्शन या कार्यवाही अर्थात् नाटक थियेटर में अर्थात् प्रेक्षाग्रह में स्टेज पर कलाकारों द्वारा दर्शकों के सामने पूर्व निर्धारित कथा के भावों को अपने रूबरू तथा एक्टिंग (अभिनय) द्वारा व्यक्त करना है।
इसे सामूहिक रूप में देखा जाता है। नाटक चाहे स्तर पर हो या विश्वविद्यालय या समाज में सार्वजनिक मंच से हो यह विद्यार्थी के मानसिक विकास में अहम भूमिका अदा करता है।
नाटक व्यक्ति के विचार और कल्पना में भी व्यापक परिवर्तन लाता है। नाटक के द्वारा समाज के कई ज्वलनशील मुद्दों को दिखलाया जाता है जिससे बालक उससे प्रभावित होते है।
”कैथलीन गैलेधर” का कथन है कि नाटक के द्वारा शिक्षा देने का कोई शैक्षिक मॉडल तो उपलब्ध नहीं है, किन्तु नाटक द्वारा शिक्षा में एक और तो अनुभवों का अर्थ स्पष्ट होता है तो दूसरी ओर अभिनेता के रूप में हम अपनी व्यक्तिगत सोच को संसार के सम्मुख रख पाते हैं संसार में अपने को किस प्रकार व्यक्त किया जाए और पारस्परिक सम्बन्धों का स्वरूप हो इसे आसानी से जान सके।
1958 में यूनेस्कों के सहयोग से भारतीय नाट्य संघ ने ही एशियन थियेटर इन्स्टीट्यूट की स्थापना की। हिन्दी नाटकों के लेखक के इतिहास पर अगर नजर डालते हैं तो यह जान पाते हैं कि नाटकों के लेखन का इतिहास भारतेन्दु हरिशचन्द्र के पिता श्री गोपाल चन्द्र द्वारा सन 1859 में लिखित नाट्य नाटक से हैं।
प्रथम मंचित नाटक का श्रेय शीतल प्रसाद त्रिवेदी के जानकी मंगल को जाता है। जो बनारस थियेटर (पुराना) सन् 1868 में मंचित किया और जिसमें भारतेन्दु ने स्वं पहलीवार एक कलाकार के रूप में अभिनय किया।
बाद में अपने देहावसान तक भारतेन्दु ने 18 नाटक लिखें। भारतेन्दु हरिशचन्द्र ने जिस प्रकार 1875 में सत्य हरिशचन्द्र, 1876 में भारत दुर्दशा एवं सन् 1878 में अंधेरी नगरी आदि नाटकों से नाटकों के आधुनिक संसार की नींव डाली उसी प्रकार भारतेन्दु के बाद जय शंकर प्रसाद ने सन् 1926 में स्कन्दगुप्त, मैथिली शरण गुप्त ने सन् 1916 में तिलोतमा सन् 1921 में चन्द्रहास और सन् 1925 आगे हमे जानेंगे कि अभिनय के कौन - कौन अंग हैं|
अभिनय के अंग- नाट्यविद्यान के मुख्यतः पाँच अंग हैं
1. मुख मुद्रा
2. शरीर भंगिमा
3. गति
4. वेग
5. वाणी
बालकों पर नाटक का शैक्षिक प्रभाव
नाटक का शैक्षिक प्रभाव कई प्रकार से पड़ते है जैसे-
1. सामाजिक प्रभाव - नाटक समाज का दर्पण होता है। समाज में घट रहीं घटनाओं को हम नाटक के माध्यम से देखते हैं जिसका प्रभाव बालकों पर अधिक पड़ता है। सकारात्मक और स्वस्थ चरित्रवाले नाटकों का प्रभाव बालक के व्यक्तित्व पर पड़ता है समाज की ज्वलन्त समस्याओं को अपना हिस्सा मानते हैं और सामाजिक रूप से उन सरोकारों से बालक जुड़ते है और उन समस्याओं को जानकर एक सामाजिक परिवर्तन लाने में सफलता मिलती है बहुत सारे सामाजिक समस्याएँ जैसे - नशा सेवन, बाल विवाह, नारी शिक्षा, जैसे नाटकों का प्रभाव बालकों में एक संवेदना पैदा करती है।
2. नैतिक मूल्यों का प्रभाव - बालक मंच पर नाटकों को देखकर मर्यादित आचरण करना सीखते है आदर्श चरित्र को अपनाते है और नैतिक मूल्यों और सामाजिक आदर्श को देखकर उनसे सीखते है कि व्यक्ति का सामाजिक सद्भावना, सौहार्द्र पूर्ण तरीके से जीना चाहिए, सामाजिक नियमों का पालन करना चाहिए और हम अपनी संस्कृति को आनेवाली पीढ़ी तक हस्तान्तरित करते है। लोक नाटकों का प्रभाव रामलीला के माध्यम से नैतिक आदर्श मूल्यों को बच्चों पर असर पड़ता है। जो आज वर्तमान परिवेश में समाप्त होता दिख रहा है।
3. चारित्रिक मूल्यों का निर्माण - नाटक कला का व्यक्ति के चरित्र पर भी प्रभाव पड़ता है अपने जीवन मूल्यों को वे समझ कर एक उज्जवल चरित्र का निर्माण करते है।
नाटक कला से संबंधित समस्याएँ एवं सुरक्षा
अभिनय एक कला है जो सदैव सम्मानित होनी चाहिए। किन्तु हमारे भारतीय वातावरण में स्वतंत्रोपरान्त भी अभिनय, अभिनेत्रियों को निर्देशकों को समाज में मान्य स्थान प्राप्त नहीं है। आज भी यहाँ अधिकांश दर्शक वर्ग ऐसा है जो नाटक को सिर्फ मनोरंजन को साधन मानते है। आज भी हमारे विचार दृष्टि रंगमंच के प्रति उपयुक्त नहीं है।
आज वैश्वीकरण के इस युग में नाटक कला ओर मंचकला को ग्लैमरस की दुनिया के सामने कमतर आँकने लगे है। यह अलगाव नाट्य के क्षेत्र के लिए दयनीय है। जबकि नाट्यशास्त्र में वर्णित नाट्य अनंतगरिमा लिए हुए है। शेक्सपियर के हेमलेट ने रंगमंच को ऐसा दर्पण कहा है जो समस्त प्रकृति की सफल अनुकृति करता है। इसलिए नाटक को वर्तमान परिवेश में अहमियत देकर बालकों के कल्पनाशीलता और चिन्तन को बढ़ाने में अहम भूमिका निभा सके।