DU SOL NCWEB | 6th Semester Political Science | Understanding Globalization | Unit 3 वैश्विक पर्यावरण के मुद्दे (ग्लोबल वार्मिंग, जैव विविधता, संसाधन की कमी) | Offline Exam Notes and Preparation

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6th Semester Political Science

Understanding Globalization

Unit 3

वैश्विक पर्यावरण के मुद्दे

(ग्लोबल वार्मिंग, जैव विविधता, संसाधन की कमी)

 

वैश्विक पर्यावरणवाद-

1962 में रेचल कार्सन ने की कृति साइलेंट स्प्रिंग के बाद पर्यावरण के विषय में वैश्विक स्तर पर सभी का ध्यान आकर्षित किया कार्सन ने कीटनाशक दवाइयों के प्रयोग द्वारा से पर्यावरण को होने वाले हानिकारक और खतरनाक प्रभाव की समीक्षा की थी, तथा इसके बाद मीडिया जनता और नीति निर्माताओं का ध्यान बड़े स्तर पर पर्यावरण की ओर आकर्षित हुआ

पर्यावरण के विरुद्ध लड़ाई और प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा से संबंधित पर्यावरण आंदोलन बड़े स्तर पर होने लगे और इनकी संख्या में वृद्धि हुई

उदाहरण के लिए - पारे का प्रयोग, हाइड्रोजन बम परीक्षण, 3 मील द्वीप पर्यावरण दुर्घटना, अनुवांशिक रूप से परिवर्तित फसल आदि जैसे मामलों में सार्वजनिक क्षेत्र में पर्यावरण संबंधित आंदोलन का महत्व बढ़ गया

जलवायु परिवर्तन एक बहुमुखी समस्या है जो कि खाद उत्पादन, जल उपलब्धता, समुद्र स्तर में बढ़ोतरी, वैश्विक ताप वृद्धि आदि जैसे संबंधों में मानव जीवन के सभी क्षेत्रों को प्रभावित करती है

è प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन की समस्याएं किसी भी राष्ट्र की सीमाओं का सम्मान नहीं करते यह पूरे विश्व को बड़े स्तर पर प्रभावित करती हैं

 

1968 में संयुक्त राष्ट्र संघ के आर्थिक और सामाजिक परिषद ने मानव पर्यावरण के समस्याओं पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन किया था जिसका नाम (United Nations Conference on the Human Environment)

पर्यावरण पर आधारित इस सम्मेलन को पहली पहली दुनिया द्वारा आयोजित किया गया था सन 1972 में स्टॉकहोम में पर्यावरण और संयुक्त राष्ट्र का सम्मेलन आयोजित किया गया इसके परिणाम स्वरूप 1972 में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की स्थापना की गई थी।

वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम वैश्विक स्तर पर पर्यावरण के संबंधों का एक प्रमुख प्रतीक है इसी के दौरान भारत के नेतृत्व में विकासशील देशों ने विकास के अधिकार की मांग की थी और तब से विकास के अधिकार की अवधारणा पर्यावरण कूटनीति की एक विशेषता रही है इसके कारण सतत विकास को एक दिशा प्राप्त हुई

 

पर्यावरण संबंधित समस्याओं का पता लगाने के लिए दो मुख्य दृष्टिकोण हैं, जिनमें पहला पर्यावरण केंद्रित दृष्टिकोण है और दूसरा मानव केंद्रित दृष्टिकोण है।

पर्यावरण केंद्रित दृष्टिकोण से अभिप्राय है कि जहां पर्यावरण स्वयं अपने लिए महत्वपूर्ण हो। मानव केंद्रित दृष्टिकोण से अभिप्राय है जहां मनुष्य के लिए पर्यावरण के लाभों का महत्व हो।

 

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण से संबंधित कई अधिनियम पर कार्य किया गया है। युद्ध और संघर्ष संपूर्ण जलवायु तंत्र को प्रभावित करते हैं इन्हें युद्ध के परिणाम स्वरुप जहां एक तरफ 1 और कृषि भूमि खत्म हो जाती है वहीं दूसरी तरफ जल के संसाधन भी प्रदूषित हो जाते हैं

इसीलिए 1949 में जेनेवा सम्मेलन के प्रोटोकॉल 1 के अनुच्छेद 35 में युद्ध के उन संसाधनों पर रोक लगाई गई थी जिन से प्रकृति पर्यावरण को नुकसान पहुंचता है।

 

जलवायु परिवर्तन के वाद-विवाद के प्रमुख मुद्दे-

 

जलवायु परिवर्तन वास्तव में पृथ्वी पर जलवायु की परिस्थितियों में बदलाव को कहा जाता है। यह विभिन्न बाह्य एवं आंतरिक कारणों से होता है जिनमें सौर विकिरण, पृथ्वी की कक्षा में परिवर्तन, ज्वालामुखी विस्फोट, प्लेट टेक्टोनिक्स आदि सहित अन्य आंतरिक एवं बाह्य कारण सम्मिलित हैं। वास्तव में, जलवायु परिवर्तन, पिछले कुछ दशकों में विशेष रूप से चिंता का कारण बन गया है। पृथ्वी पर जलवायु के स्वरूप में परिवर्तन वैश्विक चिंता का विषय बन चुका है। जलवायु परिवर्तन के कई कारण होते हैं और यह परिवर्तन विभिन्न तरीकों से पृथ्वी पर जीवन को प्रभावित करता है।

 

वैश्विक साझा संपत्ति: वैश्विक साझा संपत्ति से अभिप्राय है वायुमंडल समुद्र और अंतरिक्ष से पृथ्वी के संसाधन से है जो कि किसी एक देश का ना होकर पूरे विश्व का है तथा पूरे विश्व का इस पर अधिकार उपलब्ध है।

साझा संपत्ति का विचार यह है कि कोई भी देश वायु, जल, या भूमि को अंधाधुंध तरीके से प्रदूषित ना करें और यदि कोई प्रदूषण को बनाने में योगदान देता है, तो वही देश उसके लिए जिम्मेदार होगा और वही देश जिम्मेदार समस्या को पता लगाने में होने वाला खर्च और समस्या को ठीक करने में होने वाले खर्च के भार को उठाएगा।

 

विकास: स्टॉकहोम सम्मेलन 1972 के बाद से विकास का मुद्दा वैश्विक पर्यावरण का केंद्र बन गया है। इस दौर में संपूर्ण विश्व के विकासशील देश और पर्यावरण विद आपस में वाद-विवाद करते हुए मानते थे कि पर्यावरण में ज्यादातर ग्रीन गैस का उत्सर्जन के लिए काफी हद तक औद्योगिक राष्ट्रीय ही जिम्मेदार है।

विकसित देश यह दावा करते हैं कि विकासशील देश अधिक से अधिक ग्रीन गैस का उत्सर्जन कर रहे हैं जिससे कि वायुमंडल में परिवर्तन आ रहा है और वैश्विक ताप वृद्धि जैसी समस्या का सामना विश्व को करना पड़ रहा है।

 

जलवायु न्याय और समता: विकासशील देशों का यह मानना है कि जलवायु परिवर्तन में विकासशील देशों का सबसे कम योगदान रहा है इसीलिए जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए विकासशील देशों को समान जिम्मेदारी का वाहन नहीं करना चाहिए यही जलवायु न्याय है। जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए सभी देशों की अलग-अलग प्रकार की जिम्मेदारियां होनी चाहिए सभी को एक प्रकार की जिम्मेदारी देना अन्याय होगा।

 

शक्ति संबंध: अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बातचीत की प्रक्रिया में शक्ति की राजनीति एक दूसरा महत्वपूर्ण तत्व है। पर्यावरण के मुद्दों पर बात करते समय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शक्ति की राजनीति बड़े स्तर पर कार्य करती है।

अंतरराष्ट्रीय जलवायु समझौते की प्रक्रिया पूरी तरह से शक्ति संबंधों पर आधारित होती है क्योंकि समझौतों के दौरान कमजोर राज्यों को समझौते करने पड़ते हैं जिससे कि उन्हें अधिक से अधिक कार्य करने के लिए दबाव दिया जाता है।

भौतिक शक्ति जिसको राष्ट्रीय क्षमता के तौर पर भी देखा जा सकता है उत्तर दक्षिण गोलार्ध के विवाद के दौरान हमें यह शक्ति के रूप को देखने को मिलता है। वहीं दूसरी तरफ मानव शक्ति का उदाहरण तब देखने को मिलता है जब जलवायु शासन में महिलाओं और मूल निवासियों द्वारा अपने अधिकार के लिए संघर्ष किया जाता ह।

 

लिंग: अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किसी भी मुद्दे में महिलाओं की स्थिति को अधिक मान्यता दी गई है तथा महिलाओं द्वारा किए जाने वाले कार्यों को सराहा जाता है। इसीलिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन से जुड़े मुद्दों में लिंग के ऊपर सवाल उठाए जाते हैं।

 

प्रमुख अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण समझौते:

 

मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल: जलवायु के विषय पर पहला जलवायु सम्मेलन 1969 में जेनेवा में हुआ था। जिसका आयोजन विश्व मौसम विज्ञान संगठन ने अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के साथ मिलकर किया था। यह सम्मेलन इसलिए रखा गया था ताकि पूरे विश्व का ध्यान जलवायु परिवर्तन की ओर खींचा जा सके।

 

दूसरा जलवायु सम्मेलन 1990 में हुआ था इस सम्मेलन की प्रकृति पिछले सम्मेलन की तुलना में ज्यादा राजनीतिक थे क्योंकि इस सम्मेलन में वैश्विक जलवायु संधि की कल्पना की गई थी। मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल: ओजोन परत को नष्ट करने वाले क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) को रोकने के लिए 1987 में एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता किया गया था, जिसे मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल कहा गया। यह पहली अंतरराष्ट्रीय संधि है, जिसने ग्लोबल वार्मिंग की दर को सफलतापूर्वक धीमा किया है।

 

एनवायर्नमेंटल रिसर्च लेटर्स में प्रकाशित इस नए शोध से पता चला है कि मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल की वजह से आज वैश्विक तापमान काफी कम है। मध्य शताब्दी तक पृथ्वी औसत से कम-से-कम 1 डिग्री सेल्सियस ठंडी होगी, जो कि समझौते के बिना संभव नहीं था। आर्कटिक जैसे क्षेत्रों में शमन (मिटिगेशन) भी अधिक हुआ है। यहां तापमान के 3 डिग्री सेल्सियस से 4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने की आशंका थी, जो प्रोटोकॉल की वजह से रुक गया है।मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल का क्योटो समझौते की तुलना में ग्लोबल वार्मिंग पर अधिक प्रभाव पड़ा है। क्योटो समझौते को विशेष रूप से ग्रीनहाउस गैसों को कम करने के लिए डिज़ाइन किया गया था। जहां क्योटो समझौते के तहत की गई कार्रवाई से सदी के मध्य तक तापमान में केवल 0.12 डिग्री सेल्सियस की कमी आई, वही मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के शमन (मिटिगेशन) से तापमान 1 डिग्री सेल्सियस कम हुआ।

 

मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल ने अंटार्कटिका के आसपास के वायुमंडलीय सर्कुलेशन को कैसे प्रभावित किया, यह जानने के लिए टीम ने निष्कर्ष निकाले। शोधकर्ताओं ने वायुमंडलीय रसायन के दो परिदृश्यों के तहत वैश्विक जलवायु का मॉडल तैयार किया। पहला, मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के साथ और दूसरा इसके बिना। उन्होंने सिमुलेशन के आधार पर सीएफसी विकास दर को 3 फीसदी प्रति वर्ष माना, जोकि मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल की स्थापना के समय माने गए सीएफसी विकास दर से बहुत कम था। शोधकर्ताओं ने पाया कि सीएफसी को कम करने में मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल का बहुत बड़ा प्रभाव था।

 

 

 

संयुक्त राष्ट्र मरुस्थलीकरण रोकथाम कन्वेंशन: यह 1994 में स्थापित किया गया था यह भूमि के स्थाई प्रबंधन और मरुस्थलीकरण को रोकने के लिए कार्य करता है। यह प्रभावित परिस्थितिक तंत्र में स्थिति में सुधार लाने मरुस्थलीकरण का मुकाबला करने भूमि का क्षरण रोकने स्थाई भूमि प्रबंधन को प्रोत्साहित करने और भूमि अनुमति की तथा में योगदान देने का प्रयास करता है।

 

जैव विविधता पर कन्वेंशन: 1992 में रियो डी जेनेरियो में पर्यावरण एवं विकास पर हुआ संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन पर्यावरण के इतिहास के महत्वपूर्ण सम्मेलनों में से एक था। इस सम्मेलन को पृथ्वी सम्मेलन के नाम से जाना जाता है।

इस सम्मेलन के दो परिणाम निकले जिसमें एक तरफ जहां जैव विविधता पर कन्वेंशन को अपनाया गया तो वहीं दूसरी तरफ संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क कन्वेंशन को अपनाया गया।

यह जैव विविधता कन्वेंशन जैव विविधता और अन्य प्राकृतिक संस्थानों के संरक्षण के लिए बहुपक्षीय संधि को कानूनी तौर पर अनिवार्य करता है।

 

संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क कन्वेंशन: पृथ्वी सम्मेलन का अन्य परिणाम यह था कि इसी सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क को अपनाया था, जिसके कारण जलवायु परिवर्तन अंतरराष्ट्रीय राजनीति का महत्वपूर्ण केंद्र बन गया था। संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ने वित्त और तकनीकी सहायता, प्रक्रियात्मक प्रक्रिया, जलवायु संबंधित उपायों और संस्थागत विकास के संबंध में दिशानिर्देश निर्धारित किए थे, ताकि सभी देश जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए शर्तों को पूरा कर सकें।

 

 1. बर्लिन जनादेश: 1995 में बर्लिन में इन्वेंशन ऑफ पार्टी की पहली बैठक हुई थी जिसके पश्चात ऐसा माना जाता है कि संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क कन्वेंशन अपने सदस्य देशों को ग्रीन गैस के उत्सर्जन को कम करने के लिए बाध्य कर सकता है इस कन्वेंशन को शुद्ध करने के लिए एक संभावित प्रैक्टिकल की संरचना एवं रूपरेखा तैयार की गई। कम से कम ग्रीन गैस उत्सर्जन के लिए सदस्य देशों को बाध्य किया गया।

 

2. क्योटो प्रोटोकॉल: बर्लिन जनादेश की कमियों के कारण 1997 में क्यूटो प्रोटोकॉल लाया गया था यह देश में विकसित देशों के लिए कानूनी रूप से ग्रीन के कटौती की बात कही गई थी। समान जिम्मेदारी परंतु अलग-अलग क्षमताओं के आधार पर अलग-अलग भूमिकाओं के सिद्धांत को ध्यान में रखकर क्योटो प्रोटोकॉल में विकसित और विकासशील देशों के बीच में बांट देता है। क्योटो प्रोटोकॉल के संरचना की सबसे खास बात यही है कि स्वच्छ विकसित तंत्र और संयुक्त क्रियान्वयन का उल्लेख किया गया था।

 

3. कोपनहेगन समझौता: क्योटो प्रोटोकॉल सेव इन कोपनहेगन समझौते में कई कानूनी बाध्यता का वर्णन नहीं किया गया था जिससे यह क्यूटो प्रोटोकॉल के प्रतिबद्धताओं को आगे बढ़ाने का प्रयास में सफल हो ना सका था। इस सम्मेलन की दूसरी खास बात यह थी कि इसमें देशों द्वारा उत्सर्जित कटौती के संबंध में शिक्षा प्रतिबंधित का विचार दिया गया था इसी कारण से विकासशील देशों ने इसका विरोध किया ।

 

4. पेरिस समझौता: पेरिस समझौता एक महत्त्वपूर्ण पर्यावरणीय समझौता है जिसे जलवायु परिवर्तन और उसके नकारात्मक प्रभावों से निपटने के लिये वर्ष 2015 में दुनिया के लगभग प्रत्येक देश द्वारा अपनाया गया था।

इस समझौते का उद्देश्य वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को काफी हद तक कम करना है, ताकि इस सदी में वैश्विक तापमान वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तर (Pre-Industrial level) से 2 डिग्री सेल्सियस कम रखा जा सके।

इसके साथ ही आगे चलकर तापमान वृद्धि को और 1.5 डिग्री सेल्सियस रखने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। ध्यातव्य है कि इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये प्रत्येक देश को ग्रीनहाउस गैसों के अपने उत्सर्जन को कम करना होगा, जिसके संबंध में कई देशों द्वारा सराहनीय प्रयास भी किये गए हैं।

यह समझौता विकसित राष्ट्रों को उनके जलवायु से निपटने के प्रयासों में विकासशील राष्ट्रों की सहायता हेतु एक मार्ग प्रदान करता है।

 

 

Chapter Important Questions

1.जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन के बारे में लिखें।

2.वैश्विक पर्यावरणवाद पर एक निबंध लिखें।

3.जलवायु परिवर्तन के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुए समझौतों का विवरण करें|




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