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प्रशासन और लोकनीति: अवधारणाएं और सिद्धांत
5th / 6th Semester
Unit - 1 Part - 3
लोक प्रशासन का विकास
प्रशासन हमारे जीवन की दैनिक गतिविधियों से संबंधित है तथा इसे एक महत्वपूर्ण पक्ष माना जाता है,जिसमें यह देखा जा सकता है कि सरकार अध्यक्षता तथा कम लागत के साथ कैसे उत्कृष्ट कार्य कर सकती है।
लोक प्रशासन आधुनिक समाज में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है । लोक प्रशासन लोगों को सेवाएं प्रदान करने का एक साधन है।
समय के साथ-साथ राज्य के गतिविधियों में भी परिवर्तन आया है तथा राज्य को चलाने वाले लोक प्रशासन के स्वरूप में भी आधुनिक समय में लोक प्रशासन के स्वरूप को राज्य में परिवर्तित सामाजिक आर्थिक संदर्भ में देखा जा सकता है।
लोक प्रशासन के विकास का विश्लेषण पांच चरणों में किया जा सकता है जो निम्नलिखित हैं:-
प्रथम चरण-राजनीति प्रशासन दो विभाजन 1887 से 1926
दूसरा चरण-प्रशासन के सिद्धांत 1927 से 1937
तीसरा चरण-चुनौतियों का युद्ध 1938 से 1947
चौथा चरण-अस्मिता का संकट 1948 से 1950
पांचवा चरण सार्वजनिक नीति परिप्रेक्ष्य 1970 से आगे
प्रथम चरण राजनीति विभाजन 1887 - 1926:-
19वीं शताब्दी के अंतिम दशकों में राज्य की भूमिका एकदम न्यूनतम थी लोक प्रशासन के मौलिक सिद्धांत इन प्रारंभिक दिनों में भरे तथा यह कहा जा सकता है कि लोक प्रशासन के विकास का पहला चरण यही दौर था।
1887 ने वुड्रो विल्सन का लेख द स्टडी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन पॉलीटिकल साइंस क्वार्टरली में प्रकाशित हुआ था, जिसे लोक प्रशासन का प्रथम लेख माना जा सकता है।
वुड्रो विल्सन का मानना था कि प्रशासन का वैज्ञानिक अध्ययन होना चाहिए जिससे की जो प्रशासन के क्षेत्र में सुधार कर सके तथा इस क्षेत्र की कमियों को कम कर सके।
1900 मैं फ्रैंक जे गुडनो का लेख पॉलिटिक्स एंड एडमिनिस्ट्रेशन प्रकाशित हुआ। इस लेख में उन्होंने राजनीति तथा प्रशासन को अलग करने की बात बताई है। तथा इसे सरकार के दो अलग-अलग कार्यों के रूप में माना है।
1914 में अमेरिकन पॉलीटिकल साइंस एसोसिएशन कि समिति ने सरकारी पदों के लिए विशेषज्ञों को तैयार करने के लिए प्रशिक्षण का अपना प्रतिवेदन दिया। 1912 में लोक सेवा के लिए व्यवहारिक प्रशिक्षण पर समिति की स्थापना की गई। 1914 में इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें लोक प्रशासन को प्रशिक्षित करने के लिए विशेष व्यवस्था एक स्कूलों की अनुशंसा की गई थी।
1920 के दशक में प्रशासन ने एलडी वाइट के प्रकाशन इंट्रोडक्शन टू द स्टडी ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन के साथ शैक्षिक योग्यता प्राप्त करना प्रारंभ किया इस पुस्तक को इस क्षेत्र की प्रथम पुस्तक के रूप में मान्यता दी गई थी।
दूसरा चरण प्रकाशन के सिद्धांत 1927 से 1937:
बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में लोक प्रशासन तथा राज्य के रूप में एक वैचारिक परिवर्तन हुआ सामाजिक सुधार वाद पर बल दिया गया था ना कि पारंपारिक रूढ़िवादी पर। इसी दौरान जनता को निजी प्रशासन के बारे में ज्ञान होने लगा।
लोक प्रशासन के सिद्धांत पर डब्ल्यू एच विलोबी की पुस्तक लोक प्रशासन के क्षेत्र में दूसरी पुस्तक के रूप में उभरी जिसने प्रशासन के वैज्ञानिक सिद्धांतों पर अधिक बल दिया। यदि प्रशासन इन सिद्धांतों को लागू करना सीख ले तो वह अपने कार्यों को अच्छे रूप से कर सकते हैं।
हेनरी फेयोल की पुस्तक इंडस्ट्रियल एंड जनरल मैनेजमेंट 1930 ने संगठन के विषय में 14 सिद्धांतों की विवेचना की है।
मैरी पार्कर का क्रिएटिव एक्सपीरियंस 1924
गुलिक तथा उर्विक पेपर ऑन द साइंस ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन 1937 ने संगठन के साथ सिद्धांतों के विषय में विस्तार में बताया है।
इस चरण मैं लोक प्रशासन के सभी विचारकों ने वैज्ञानिक सिद्धांतों पर अधिक बल दिया है। उन्होंने कहा कि प्रशासन के नियम उपस्थित हैं जिन्हें खो जाता था बढ़ाया जाना चाहिए।
तीसरा चरण चुनौतियों का युग 1938 से 1947:
इस चरण में निजी क्षेत्र तथा बाजार नागरिकों की आवश्यकताओं को पूर्ण करने में विफल रहे बाजार को राज्य के नियंत्रण में लेना पड़ा।
इस दौर में यह देखा गया कि आर्थिक सामाजिक तथा राजनीतिक नीतियों का एक दूसरे पर प्रभाव पड़ता है।
लोक सेवा के कार्यों में ना केवल कानून तथा व्यवस्था बनाना सम्मिलित है अपितु सार्वजनिक नीतियों के निर्माण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका को भी स्वीकार किया गया।
इस समय के दौरान 1940 के दशक में वैज्ञानिक प्रबंधन की आलोचना की गई । इस दौरान यह अनुभव किया गया कि उत्पादकता बढ़ाने के लिए सिर्फ वैज्ञानिक सिद्धांतों पर बल देना आवश्यक नहीं है अपितु मानव के पक्षों पर भी ध्यान देना चाहिए।
कई विचारक जैसे एल्टन मेयो, चेस्टर बर्नार्ड तथा आदि विचारकों ने लोक प्रशासन में मानवीय पक्ष पर अधिक बल दिया।
इस दौरान यह मान लिया गया कि प्रशासन तथा राजनीति को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। फर्टज मार्क्स ने 1946 में एलिमेंट्स ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन का पहला खंड तैयार किया जिसमें उन्होंने प्रशासन तथा राजनीति के विभाजन पर प्रश्न उठाया।
राजनीति तथा प्रशासन के विभाजन को चुनौती देने वालों ने लोक प्रशासन के क्षेत्र में भौतिक परिवर्तन किए प्रशासन कभी भी राजनीति से पृथक नहीं रहा।
चौथा चरण चिंता का संकट 1948 से 1970:
इस चरण के दौरान वैज्ञानिक सिद्धांतों की आलोचना के साथ-साथ अंतर अनुशासनात्मक अध्ययन तथा विश्लेषण पर बल दिया गया।
यह चरण 1947 में साइमन की पुस्तक एडमिनिस्ट्रेटिव बिहेवियर तथा रॉबर्ट बाहर के निबंध साइंस ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन के प्रकाशन से आरंभ हुआ।
साइमन ने लोक प्रशासन के सिद्धांत को बताने के साथ-साथ प्रशासन के वैज्ञानिक विश्लेषण को भी महत्व दिया।
उन्होंने नीति निर्माण के तर्कसंगत सिद्धांतों पर बल दिया जिसमें साधन तथा साध्य के मध्य संबंध पर प्रकाश डाला।
साइमन ने कहा कि प्रशासनिक सिद्धांत मानव इच्छाओं के तर्क तथा मनोविज्ञान से लिए गए हैं।
इस चरण मैं प्रकाशन के विकास में तीन महत्वपूर्ण समस्याओं का उल्लेख किया गया है
पहली समस्या में यह बताया गया था कि विज्ञान मूल्य मुक्त है, जबकि मूल्य प्रशासन को प्रभावित करता है।
दूसरी समस्या में कहा गया कि लोक प्रशासन के विज्ञान के विकास के लिए मानवीय पक्षों का अध्ययन आवश्यक है। मानव का व्यवहार विविधताओं से भरा हुआ है इसका पूरी तरह निरीक्षण करना असंभव है।
तीसरी समस्या के अंतर्गत यह कहा गया कि सीमित राष्ट्रीय एवं ऐतिहासिक संदर्भों में लिए गए उदाहरणों के आधार पर सार्वभौमिक सिद्धांत का पता लगाना की प्रवृत्ति है।
पांचवा चरण सार्वजनिक नीति तथा परिप्रेक्ष्य 1970 से आगे:
दूसरे विश्व युद्ध के बाद एशिया अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिका में नए राष्ट्रीय का निर्माण हुआ, तथा लोक प्रशासन के अध्ययन में नवीन प्रवृत्ति प्रस्तुत की गई।
पश्चिमी विद्वान विशेष रुप से अमेरिका के विद्वानों ने नए स्वतंत्र राष्ट्र की प्रशासनिक प्रकृति का अध्ययन करने में अधिक रूचि व्यक्त की।
इस चरण के दौरान लोक प्रशासन में नव लोक प्रशासन परिप्रेक्ष्य का उधर भी देखा जा सकता है, 1960 के दशक के अंत में लोक प्रशासन की समकालीन प्रकृति पर प्रश्न उठाए गए थे।
इस चरण के दौरान नई नीतियों को बनाने के लिए स्कूल एक अन्य महत्वपूर्ण अनुशासन के रूप में उभर कर सामने आया जिसमें नौकरशाही को समाप्त करने के लिए प्रयास किए गए हैं।
इसमें प्रतिस्पर्धा तथा निजी करण पर बल दिया गया। इस स्कूल का मानना है कि नागरिकों को सेवाएं प्रदान करने के लिए विकल्प उपलब्ध होने चाहिए। इसके अंतर्गत राज्य के प्रभुत्व को बाजार की भूमिका ने चुनौती दी।
इस चरण का मुख्य उद्देश्य नागरिकों के हितों को ध्यान में रखना पारंपरिक नौकरशाही को कम करना तथा लोकतांत्रिक करण तथा विकेंद्रीकरण पर ध्यान केंद्रित करना था।
1980 के दशक से ही वैश्वीकरण के द्वार में सुशासन को अधिक महत्व दिया जा रहा है। वैश्वीकरण के साथ-साथ राज्य की प्रकृति परिवर्तन हो गई है,प्रशासन के रूप में भी परिवर्तन आया है तथा राज्य के बीच मध्य बातचीत बड़ी है।