DU SOL NCWEB 3rd/4th Semester Education (Discipline Course) | Chapter 4 (पियाजे का संज्ञानात्मक विकास का सिद्धान्त)

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3rd/4TH SEMESTER EDUCATION (Discipline)

CHAPTER - 4


पियाजे का संज्ञानात्मक विकास का सिद्धान्त




जीवन परिचय :- जीन पियाजे (1896-1980)

स्विजरलैंड के प्रसिद्ध बाल मनोवैज्ञानिक थे। पियाजे को बाल विकास के क्षेत्र में अनेक अमूल्य योगदान के बारे में जाना जाता है क्योंकि इन्होंने बाल विकास के क्षेत्र में बहुत बड़ा योगदान दिया।

पियाजे स्नातक की पढ़ाई के बाद स्विजरलैंड चले गए और उन्होंने अल्फ्रेड सिने द्वारा स्थापित विश्वविद्यालय में शिक्षक के रूप में कार्य किया।


1925-1929 तक पियाजे ने मनोवैज्ञानिक समाजशास्त्र तथा विज्ञान के दर्शनशास्त्र के क्षेत्र में न्यू शटल विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर कार्य किया।

सन 1929 में जीन पियाजे ने अंतरराष्ट्रीय शिक्षा ब्यूरो निर्देशक के पद पर कार्य किया।


सीखने की यात्रा के दौरान प्याज एक का रुझान बच्चों द्वारा की जाने वाली गलतियों को समझने में होने लगा जो आगे चलकर छोटे बच्चों में सोचने सीखने एवं तर्क करने की प्रक्रिया का पता लगने के लिए उनका प्रेरणा स्रोत बना।


पियाजे संज्ञानात्मक विकास का विकसित अध्ययन करने वाले पहले मनोवैज्ञानिक थे।


बाल संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत बच्चों में अनुभूति के अवलोकन का अध्ययन और विभिन्न संज्ञानात्मक क्षमताओं को प्रकट करने के लिए सरल परीक्षण की श्रंखला का निर्माण करके उन्होंने इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

शैक्षिक  क्षेत्र में बाल केंद्रित दृष्टिकोण का विकास पराजय के कार्यों का ही परिणाम था।


प्याजे ने बाल विकास के क्षेत्र में बहुत योगदान दिया है इसके लिए बाल विकास के सिद्धांत का पूर्व सेवा शिक्षा कार्यक्रम में अध्ययन अध्यापन किया जाता है।


संज्ञानात्मक विकास


पियाजे के अनुसार हमारी चिंतन की प्रक्रिया मौलिक रूप से बदलती रहती है। जन्म से परिपक्वता तक हम लगातार दुनिया को समझने का प्रयास करते हैं।


प्याजे ने जैविक परिपक्वता, गतिविधि, सामाजिक अनुभव और साम्यधारण  नाम के चार कारकों की की पहचान की है जो चिंतन में परिवर्तन को प्रभावित करने के लिए एक रूप से महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।


पियाजे के अनुसार मानव शिशु के रूप में पैदा होते ही संज्ञानात्मक प्राणी के रूप में व्यवहार नहीं करता बल्कि वह निरंतर गतिविधियां करता रहता है और सीखता रहता है।

जैसे बच्चे बड़े होने लगते हैं वे अपने विविध अनुभवों को व्यवस्थित करने सीखते हैं। अर्थात बच्चों की उम्र के साथ-साथ उनके अनुभवों की संख्या भी बढ़ती है और वह अपने अनुभवों से कई चीजें सीखते हैं।


जैसे जैसे बच्चे अपने आसपास के वातावरण मैं अंतः क्रिया करने लगते हैं वैसे वैसे वह विभिन्न संरचनाओं का निर्माण करने लगते हैं।


पियाजे के सिद्धांत को संज्ञानात्मक विकास की रचना वादी दृष्टिकोण के रूप में वर्णित किया जाता है जो हमें बाल व्यवस्था से व्यस्कता तक मनुष्य की चिंतन प्रक्रिया को समझने में सहायता करते हैं।


पियाजे के संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत ज्ञान , बुद्धिमत्ता और विद्यार्थी के पर्यावरण के साथ संबंधों को पुण्य परिभाषित करता है।


संज्ञानात्मक दृष्टिकोण के लक्षण एवं विशेषताएं-


  • संज्ञानात्मक दृश्य कोण में सीखने को एक प्रक्रिया एवं गतिशील प्रक्रिया माना गया है अर्थात सीखना एक ऐसी प्रक्रिया है जो तीव्र गति से होती है।

  • इस दृष्टिकोण ने परिपक्वता को संज्ञानवादी रचनाओं में बदलाव एवं विकास के लिए मुख्य कारक माना गया है

  • संज्ञानात्मक विकास इस बात पर बल देता है कि बच्चे किस प्रकार चिंतन एवं खोज करते है। अर्थात संज्ञानात्मक विकास बच्चों के सोचने और उनके कुछ नए चीजों के अनुभव करने पर ध्यान केंद्रित करता है।

  • यह ज्ञान, कौशल ,समस्या समाधान,एवं निपटान का विकास है जो बच्चों को उनके आसपास के वातावरण के बारे में चिंतन करने है उसको समझने में सहायता करता है।

  • इस दृष्टिकोण के अंतर्गत शिक्षार्थी को खोजकर्ता एवं सक्रिय प्राणी के रूप में देखा गया है जो अपने वातावरण से निरंतर रूप से क्रिया कर रहा है और उसे समझने का प्रयास कर रहा है।

  • यह दृष्टिकोण शिक्षार्थी को कई प्रकारों से मदद करता है जैसे समस्या समाधान, कुछ नया सीखना, अन्य श्रेष्ठ मानसिक क्रियाएं आदि।



पियाजे के सिद्धांत की मुख्य अवधारणाएं 


संगठन :- संगठन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें बच्चा बिना पर्यावरण से जुड़े कुछ कार्य आंतरिक रूप से कर पाता है। यह एक ऐसी प्रणाली है जिसमें बच्चा स्वयं संसार को समझने और वातावरण के साथ कार्य करने में सक्षम होता है।

उदाहरण के रूप ने शिशु एक समय पर या तो किसी वस्तु को देखता है या अपने हाथ के संपर्क में आने पर उसे पकड़ लेता है परंतु एक समय पर बच्चा दोनों कार्य नहीं कर सकता पर समय के साथ-साथ बच्चा दोनों कार्य करने में सक्षम हो जाता है।

जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है वह इन दोनों व्यवहारगत संरचनाओं को संगठित कर एक समन्वित्त संज्ञानात्मक संरचना में परिवर्तन करने में सक्षम हो जाता है।

पियाजे द्वारा इन संरचनाओं को इसकी मा कहा गया है वह क्रियाएं अथवा विचारों की एक संगठित व्यवस्था है जो हमें संसार की घटनाओं और वस्तुओं के बारे में सोचने के सक्षम बनाती है।

पहले बच्चा योजनाएं बनाता है उसके बाद वह उन योजनाओं के साथ जोड़कर नई नई चीजें सीखने और संज्ञानात्मक प्रणाली का निर्माण करता है।

उदाहरण के लिए पाइप द्वारा सूचना क्लास से पानी पीना तथा पेंसिल पकड़ना इत्यादि समय के साथ साथ व्यक्ति की चिंतन प्रक्रिया व्यवस्थित और संगठित होती जाती है एवं नई योजनाएं विकसित होती जाती है जिस प्रकार व्यक्ति का व्यवहार वातावरण के अनुकूल हो जाता है।


अनुकूलन :- पियाजे के अनुसार बच्चे में अपने वातावरण के साथ समायोजन की प्रवृत्ति जन्मजात होती है। बच्चे की प्रवृत्ति को अनुकूलन कहा जाता है। पियाजे के अनुसार बालक अपने प्रारंभिक जीवन से ही अनुकूलन करने लगता है। जब कोई बच्चा वातावरण में किसी ऐसी स्थिति के सामने होता है जिसमें उसे कई सारे चीजों का सामना करना होता है तो उस समय उसकी विभिन्न मानसिक क्रिया है अलग-अलग कार्य ना करके एक साथ संगठित होकर कार्य करती हैं और ज्ञान को अर्जित करती हैं यही क्रिया हमेशा मानसिक स्तर पर चलती।वातावरण के साथ मनुष्य का जो संबंध होता है उस संबंध को संगठन आंतरिक रूप से प्रभावित करता है जबकि अनुकूलन बाहरी रूप से पराजय ने अनुकूलन की प्रक्रिया को अधिक महत्वपूर्ण माना है।

अनुकूलन की प्रक्रिया आजीवन निरंतर चलती रहती है अनुकूलन के अंतर्गत तीन आधारभूत प्रक्रिया से संबंधित है आत्मसात्करण, समायोजन एवं साम्यावस्था।


  • आत्मसात्करण :- यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें बालक किसी समस्या का समाधान करने के लिए पहले सीखी गई योजनाओं या मानसिक प्रक्रियाओं का सहारा लेता है यह एक जीव वैज्ञानिक प्रक्रिया है।उदाहरण के लिए पहली बार जब बच्चे कुत्ते को देखते हैं जिसके चार पैर है तो वह अपने पूर्व अनुभव के आधार पर उसे बिल्ली संबोधित करते हैं ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वह कुत्ते के लिए भी बिल्ली से जुड़े इसकी मां का प्रयोग करते हैं अर्थात वह पशुओं की पहचान के लिए एक मौजूद स्कीमा के साथ नए अनुभवों को सम्मिलित करने का प्रयत्न करते हैं।

 बाल्यावस्थासे ही बालक निरंतर संसार के प्रति अपने पहले से स्थापित ज्ञान में नई जानकारियों और अनुभव को एकत्रित करता है यह प्रक्रिया बाल्यावस्था के साथ समाप्त नहीं होती बल्कि आजीवन चलती रहती है।


  • समायोजन :- समायोजन एक ऐसी प्रक्रिया है जो पूर्व में सीखी योजना हो या मानसिक प्रक्रिया से काम ना चलने पर समंजन के लिए की जाती है प्याजे कहते हैं कि बालक आत्मसात्करण और समायोजन की प्रक्रिया के बीच संतुलन कायम करता है जिससे वह वातावरण के साथ समायोजन कर सके।उदाहरण के लिए जब बालक को टॉफी के स्थान पर रसगुल्ला देते हैं तो बालक यह जानता है टॉफी मीठी होती है पर वह अपने मानसिक संरचना में परिवर्तन लाता है और इससे नई बात जोड़ता है कि टॉफी और रसगुल्ला दोनों अलग-अलग खाद्य पदार्थ है जबकि दोनों स्वाद में बैठे हैं।

  • साम्यावस्था :- साम्यावस्था आत्मसात्करण और समायोजन के बीच संतुलन को दर्शाता है।साम्यवस्था वह कारक है जो निरंतर अंतः क्रिया और निरंतर परिवर्तन की प्रक्रिया के दौरान स्थिरता बनाए रखता है उदाहरण के लिए जब बच्चे के मस्तिष्क में परिवर्तन होता है और उसका विकास होता है तब व्यवस्था उसके मस्तिष्क में स्थिरता को बनाए रखने में सहायता करता है।

संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत :- 

जीन पियाजे ने अपने इस सिद्धांत में बच्चों पर बहुत बारीकी से अध्ययन किया और पाया कि बालों को का बुद्धि का विकास किस प्रकार होता है यह जानने के लिए हर बच्चे को अपने खोज का विषय बना लिया और उन पर अध्ययन करना चालू किया इस प्रक्रिया के अंतर्गत उन्होंने देखा कि बच्चे जैसे जैसे बड़े होते हैं उनका मानसिक विकास उनके साथ होता है इस अध्ययन के बाद उन्होंने जिन विचारों का प्रतिपादन किया उसे हम जीन पियाजे का मानसिक किया संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत के नाम से जानते हैं।


पियाजे के संज्ञानात्मक सिद्धांत के अनुसार वह प्रक्रिया जिसके द्वारा संज्ञानात्मक संरचना को संशोधित किया जाता है समावेशन कहलाती है प्याजे ने अपने इस सिद्धांत में यह बातें सामने रखी कि बच्चों में बुद्धि का विकास उनके जन्म के साथ जुड़ा रहता है उन्होंने यह भी बताया कि प्रत्येक बालक अपने जन्म से ही कुछ प्रवृतियां एवं सहज क्रियाओं को करने की कला होती है जैसे चूसना देखना वस्तु को पकड़ना आदि।


प्याजे बताते हैं कि बच्चे की उम्र जैसे-जैसे बढ़ती जाती है उसकी बुद्धि और बौद्धिक क्षमता बढ़ती जाती है और वह बुद्धिमान होता चला जाता है और इसी तरह उसके दुनिया के बारे में समझ विकसित करने की क्षमता पैदा होती है और बच्चे को नए नए अनुभव प्राप्त होते हैं।


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