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2nd
Semester / Education DSC
मानव विकास की समझ
अध्याय 1 : मानव विकास विशेषताएं एवं विभिन्न
अवस्थाएं
विकास और वृद्धि में
अंतर :-
- वृद्धि की अवधारणा
मात्रात्मक मापन के आधार पर मापी जा सकती है और विकास की अवधारणा मात्रात्मक
और गुणात्मक दोनों आधारों पर मापी जा सकती है। उदाहरण के लिए अपने आस पास
पड़ोस या अपने घर के ही बच्चों का अवलोकन कर सकते हैं जब बच्चे बड़े हो रहे
होते हैं तो हम उन में होने वाले शारीरिक बदलावों को मात्रात्मक रूप से माफ
सकते हैं और यदि हम यह जानना है कि पिछले 6 महीने में बच्चों का मृत
स्तर क्या था तो हमें विकास का पता चल जाएगा।
- किसी व्यक्ति के जीवन में
वृद्धि एक निश्चित समय सीमा तक होती है परंतु विकास की कोई समय सीमा नहीं
होती विकास जीवन भर चलता है उदाहरण के लिए एक व्यक्ति का शरीर एक उम्र पर आकर
वृद्धि करना बंद कर देता है जैसे कि उसकी लंबाई बढ़ना बंद हो जाती। परंतु
विकास जीवन भर चलता है उदाहरण के लिए व्यक्ति में भाषा, सामाजिक कौशल, सांस्कृतिक विशेषताएं, बुद्धि, विचारों, तर्कों एवं संवेग में
परिवर्तन और विकास बिना रुके जीवन के अंत तक चलता है।
- वृद्धि का तात्पर्य व्यक्ति
के जीवन में होने वाले जैविक परिवर्तनों से है जिसमें व्यक्ति के शरीर के
अंगों का विकास होता है। विकास का तात्पर्य जैविक परिवर्तन के साथ-साथ
विभिन्न सामाजिक और सांस्कृतिक कार्य को द्वारा व्यक्ति के आचार विचार में
होने वाले परिवर्तन से है।
- वृद्धि दिखाई देती है इसीलिए
उसे चिन्हित किया जा सकता है परंतु विकास गहन और जटिल होता है इसीलिए यह
सरलता से दिखाई नहीं देता। वृद्धि को हम सरल रूप से मात्रात्मक से नाप सकते
हैं परंतु विकास को मापने के लिए गहन शोध करना पड़ता है।
- वृद्धि एक आयामी है और विकास
बहुआयामी है। मानव विकास के अंतर्गत वृद्धि एक प्रकार के परिवर्तन को
परिभाषित करती है जिसमें भौतिक परिवर्तन प्रमुख है परंतु दूसरी और विकास अपने
अंदर कई प्रकार के परिवर्तन को सम्मिलित किए हुए होता है जो मानव विकास को
पूरी तरह बनते हैं।
मानव विकास के विभिन्न
आयामों का वर्णन :-
- शारीरिक विकास :- मानव विकास
के आयामों में शारीरिक विकास एक महत्वपूर्ण आयाम है। इसके अंतर्गत व्यक्ति के
शरीर अंगों का बढ़ना और उनमें परिवर्तन होना महत्वपूर्ण रूप से सम्मिलित है।
जन्म के बाद व्यक्ति की लंबाई वजन आदि मात्रात्मक परिवर्तन में आते हैं।
वृद्धि विकास का एक महत्वपूर्ण आयाम है और इसे विकास की अवधारणा के रूप में
समझा जा सकता है।
- शारीरिक क्रियाओं पर
नियंत्रण का विकास:- जब बच्चा पैदा होता है तो उसे केवल कुछ ही चीजें करनी आती
है जैसे रोना और चुसना परंतु जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है वह अन्य चीजें और
क्रिया सीखता है जैसे उंगलियों पर नियंत्रण मूत्र और स्वच्छ क्रियाओं पर
नियंत्रण अपने पैरों की मांसपेशियों पर नियंत्रण आदि प्रारंभिक विकास के
मुख्य उदाहरण है।
- भाषा का विकास:- किसी भी
व्यक्ति में भाषा का विकास जटिल अथवा कठिन प्रक्रिया है। बच्चा अपने परिवार के
सदस्यों को देखकर सुनना और बोलने की प्रक्रिया आरंभ करता है। जैसे-जैसे बच्चा
बड़ा होता जाता है उसी प्रकार उसके भाषा में विकास होता रहता है वह कुछ नए
शब्दों को सीखता है तथा उन्हें बोलने का प्रयास करता है।
- संवेगात्मक विकास :- संवेग शब्द का अंग्रेजी में अर्थ है emotion । संवेग एक भावनात्मक स्थिति है जब उद्दीप्त होता है। इस अवस्था को संवेग का नाम दिया गया है। उदाहरण के रूप में भय , क्रोध, चिंता, प्रसन्नता आदि उद्दीपत अवस्थाएं हैं। समय के साथ-साथ मनुष्य अलग-अलग प्रकार के संवेग को महसूस करता है।
- सामाजिक विकास :-सामाजिक
विकास से तात्पर्य है व्यक्ति का अपने समाज के साथ अंतः क्रिया करने और
विभिन्न सामाजिक व्यवहार और भूमिकाओं के विकास से है उदाहरण के लिए जब बच्चा
पैदा होता है तो वह सर्वप्रथम परिवार के साथ संवाद करना आरंभ करता है
धीरे-धीरे समाज विद्यालय कार्यस्थल सार्वजनिक सभाओं आदि का अवलोकन करने के
साथ-साथ वहां पर भी अपना संवाद स्थापित करता है और एक प्रकार से एक सामाजिक
प्राणी बन जाता है।
- संज्ञानात्मक विकास :-
संज्ञानात्मक विकास से अभिप्राय व्यक्ति की विभिन्न बौद्धिक प्रक्रियाओं से
है जिसमें वह तर्क, विचार, संवाद, अवलोकन,समस्या समाधान निर्णय लेने
आदि की क्षमताओं को अर्जित करता है। जीन पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास पर
बहुत वितरण में अध्ययन किया है।
मानव विकास के विभिन्न
स्तर:
- जन्म पूर्व
अवस्था:- यह संस्था के दौरान बच्चा स्त्री
के गर्भ धारण मैं होता है। यह अवस्था लगभग 40 हफ्ते या 9 महीने तक चलती है। इस अवस्था
में बच्चे का स्वास्थ्य की माता के स्वास्थ्य जीवनशैली और खान-पान पर निर्भर
करता है।
- शिशु अवस्था:- मानव के विकास के स्तर को
जन्म से लेकर 18 महीने की आयु के अंतर्गत
सीमा बंद किया गया है इस अवस्था में व्यक्ति के दिमाग का विकास प्रारंभिक
शारीरिक गतिविधियों का विकास प्रारंभिक भाषा कौशल का विकास महत्वपूर्ण रूप से
होता है। इस अवस्था में बच्चे के शरीर के मध्य भाग उसके हाथ पैर की तुलना में
अधिक।
- प्रारंभिक
बाल्यावस्था 18 महीने से 3 वर्ष :- इस अवस्था में बच्चा
विभिन्नशारीरिक परिवर्तनों से गुजरता है। उसके शरीर के मध्य भाग की तुलना में
हाथ पैर और अन्य जोड़ तीव्र गति से बढ़ते हैं जिसकी वजह से बच्चा संतुलन बना
पाता है खड़ा होता है तथा चलना और दौड़ना आरंभ करता है।
- माध्यमिक
बाल्यावस्था 3 वर्ष से 5 वर्ष :- इस अवस्था में हम पूर्व
विद्यालय अवस्था के रूप में जानते हैं। यह व्यवस्था होती है जिसमें बच्चा
विद्यालय जाने की तैयारी करता है इस दौरान बच्चा अपनी भाषा को परिपक्व कर रहा
होता है तथा यह आकार समय स्थान दूरी आदि की अवधारणाओं को समझना आरंभ करता है।
- उत्तर बाल्यावस्था
5 वर्ष से 12 वर्ष:- उत्तर बाल्यावस्था काल को विद्यालय काल भी कहा जाता है क्योंकि इसमें व्यक्ति अपने दिन का एक बड़ा हिस्सा विद्यालय में बिताता है
हालांकि हमें यह भी समझना होगा कि जिन संदर्भों में विद्यार्थी विद्यालय नहीं
पहुंच पाता वह घर परिवार में उनका अनौपचारिक प्रशिक्षण चलता रहता है।इस
अवस्था में बच्चा स्वयं अपने माध्यम से वस्तुओं में तुलना करना सीखता है इस
अवस्था में बच्चा नए मित्र बनाता है और समूहों का निर्माण करता है।
- किशोरावस्था 12 वर्ष से 15 वर्ष तक :- किशोरावस्था काल व्यक्ति के जीवन की एक महत्वपूर्ण अवस्था है। इस अवस्था में व्यक्ति की मानसिक शारीरिक संरचनाओं में आने वाले बदलाव उसके व्यवहार को भी नाटकीय रूप से प्रभावित करता है।
- प्रारंभिक
युवावस्था 20 वर्ष से 30 वर्ष तक :- प्रारंभिक युवावस्था
किशोरावस्था के बाद अगले अवस्था है। इस अवस्था में व्यक्ति कुछ किशोरावस्था
के लिए हुए होता है तो कुछ गुड़ युवावस्था के धारण किए होता है इस अवस्था में
व्यक्ति अपनी सामाजिक जिम्मेदारी और जवाबदेही को लेकर गंभीरता से सोचना आरंभ
करता है इस अवस्था में व्यक्ति विभा जैसे महत्वपूर्ण संबंध का निर्माण करता
है और समाज के अन्य अपेक्षाओं के प्रति गंभीर हो जाता है।
- प्रौढ़ावस्था 35 वर्ष से 60 वर्ष :- व्यक्ति के जीवन में यह
अवस्था लगभग मध्य में पढ़ती है इसीलिए इसे मध्य वस्था भी कहा जाता है। अवस्था
में व्यक्ति कार्य करता है और अपने परिवार का पालन पोषण में अपना अधिकांश समय
व्यतीत करता है व्यक्ति पूर्ण रूप से एक क्रियाशील सामाजिक इकाई के रूप में
कार्य करता है । इस अवस्था में व्यक्ति विभिन्न प्रकार के समस्याओं की प्रकृति
को समझ कर उनका हल निकालने के कौशल को भी विकसित करता है।
- वृद्धा वस्था 60 वर्ष या उससे
अधिक :- जब व्यक्ति 60 वर्ष से 65 वर्ष में प्रवेश करता है तो
विश्व के अधिकांश संस्कृतियों में से वृद्धि के रूप में मान्यता दी जाती है।
इस अवस्था में व्यक्ति कमजोर हो जाता है और धीरे-धीरे अन्य लोगों पर निर्भर
होने लगता है तथा इसी अवस्था में व्यक्ति का जीवन समाप्त हो जाता है।
पंचकोश
योग की धारणा के अनुसार मानव का अस्तित्व पाँच भागों में बंटा है
जिन्हें पंचकोश कहते हैं। ये कोश एक साथ विद्यमान अस्तित्व के विभिन्न तल समान
होते हैं। विभिन्न कोशों में चेतन, अवचेतन तथा अचेतन मन की अनुभूति होती है। प्रत्येक कोश का एक दूसरे
से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। वे एक दूसरे को प्रभावित करती और होती हैं।
ये पाँच कोश हैं -
1. अन्नमय कोश - अन्न तथा भोजन से निर्मित। शरीर और मस्तिष्क। सम्पूर्ण दृश्यमान
जगत, ग्रह-नक्षत्र, तारे और हमारी यह पृथ्वी, आत्मा की प्रथम अभिव्यक्ति है। यह दिखाई
देने वाला जड़ जगत जिसमें हमारा शरीर भी शामिल है यही अन्न से बना शरीर अन्नरसमय
कहलाता हैं। इसीलिए वैदिक ऋषियों ने अन्न को ब्रह्म कहा है। यह प्रथम कोश है जहाँ
आत्मा स्वयं को अभिव्यक्त करती रहती है। शरीर कहने का मतलब सिर्फ मनुष्य ही नहीं
सभी वृक्ष, लताओं और प्राणियों का शरीर। जो आत्मा इस शरीर को ही सब कुछ मानकर
भोग-विलास में निरंतर रहती है वही तमोगुणी कहलाती है। इस शरीर से बढ़कर भी कुछ है।
इस जड़-प्रकृति जगत से बढ़कर भी कुछ है। जड़ का अस्तित्व मानव से पहिले का है।
प्राणियों से पहिले का है। वृक्ष और समुद्री लताओं से पहिले का है। पहिले पाँच
तत्वों (अग्नि, जल, वायु, पृथवि, आकाश) की सत्ता ही विद्यमान थी। इस जड़ को ही शक्ति कहते हैं- अन्न
रसमय कहते हैं। यही आत्मा की पूर्ण सुप्तावस्था है। यह आत्मा की अधोगति है। फिर
जड़ में प्राण, मन और बुद्धि आदि सुप्त है। इस शरीर को पुष्ट और शुद्ध करने के
लिए यम, नियम और आसन का प्रवधान है। इस अन्नमय कोश को प्राणमय कोश ने, प्राणमय को मनोमय, मनोमय को विज्ञानमय और विज्ञानमय को आनंदमय कोश ने ढाँक रखा है। यह
व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह क्या सिर्फ शरीर के तल पर ही जी रहा है या कि
उससे ऊपर के आवरणों में। किसी तल पर जीने का अर्थ है कि हमारी चेतना या जागरण की
स्थिति क्या है। जड़बुद्धि का मतलब ही यही है वह इतना बेहोश है कि उसे अपने होने
का होश नहीं जैसे पत्थर और पशु।
2. प्राणमय कोश - प्राणों से बना। स्वास लेने से हमारे अन्नमय कोश से जो स्पंदन बाहर
तरफ़ जाता है उससे हमारे चारों तरफ़ तरंगों का क्रम बन जाता है, यही हमारा प्राणमय कोश होता है, मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ मनुष्य पूर्ण साँस लेता है तो
उसका प्राणमय कोश उत्तम अवस्था में रहता है, प्राणायम के सतत प्रयोग से प्राणमय कोश को
स्वस्थ रखा जा सकता है।
3. मनोमय कोश - मन से बना। हम जो देखते, सुनते हैं अर्थात हमारी इन्द्रियों द्वारा जब कोई सन्देश हमारे
मस्तिष्क में जाता है तो उसके अनुसार वहाँ सूचना एकत्रित हो जाती है, और मस्तिष्क से हमारी भावनाओं के अनुसार रसायनों का श्राव होता है
जिससे हमारे विचार बनते हैं, जैसे विचार होंते हैं उसी तरह से हमारा मन स्पंदन करने लगता
है और इसप्रकार प्राणमय कोश के बाहर एक आवरण बन जाता है यही हमारा मनोमय कोश होता
है l
4. विज्ञानमय कोश - अन्तर्ज्ञान या सहज ज्ञान से बना।
5. आनंदमय कोश - आनन्दानुभूति से बना।
चार जीवन सत्य
बौद्ध दर्शन ने मानव विकास को चार जीवन सत्य के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है| यह चार जीवन सत्य निम्नलिखित है:
1. दुख (संसार में दुख है): बौद्ध दर्शन मानते हैं कि सारा संसार विभिन्न प्रकार के दुखों से भरा है जन्म, बुढ़ापा, बीमारी, अपनी प्रिय जनों का अलग हो जाना और अधूरी इच्छाएं सभी दुख है|
2. समुदाय (दुख के कारण): दुख का कारण भोग, विलास, द्वेष
आधी है व्यक्ति जब भी इनके नियंत्रण में चला जाता है तो वह दुखी हो जाता है दुख का
कारण व्यक्ति के भीतर ही है|
3. निरोध (दुख के निवारण): जब व्यक्ति को दुख के कारण के
विषय में ज्ञान होता है तब वह उसके निवारण के लिए प्रयास करता है जिसमें उसकी
सहायता उसका आत्म नियंत्रण और उसका निर्देशक करता है|
4. मार्ग (दुख के निवारण के मार्ग): बौद्ध दर्शन ने दुख के
निवारण के लिए अष्टांग मार्ग से आए हैं|
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