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Hindi A 4th Semester Unit 3 Chapter 1 (उत्साह (रामचंद्र शुक्ल)) Notes | DU SOL NCWEB IGONU

 Hindi A    4th Semester

     Unit 3 chapter 1


     उत्साह (रामचंद्र शुक्ल)


आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी के प्रसिद्ध निबंधकार हुए हैं। हिंदी के निबंधकार के क्षेत्र में इनका एक विशेष स्थान है।


आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य के क्षेत्र में भी कार्य किया है परंतु वह निबंध के क्षेत्र में अधिक प्रसिद्ध हुए हैं।


रामचंद्र शुक्ल ने पत्रिकाओं के संपादक के रूप में भी कार्य किया है।



जन्म :- आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जन्म अगौना मैं 1884 ईसवी में हुआ।


उनके जन्म के बाद उनके पिता प. चंद्रबली शुक्ल मिर्जापुर आ गए।

रामचंद्र शुक्ल ने मिर्जापुर में अपनी शिक्षा प्राप्त की और उनके साहित्य जीवन का निर्माण भी मिर्जापुर में ही हुआ।


शुक्ला जी के निबंध के विषय :- शुक्ला जी के निबंध के विषय प्रमुख रूप से दो भागों में विभाजित हो सकते हैं

  • मनोविकार से संबंधित मनोवैज्ञानिक निबंध

  • काव्य शास्त्र तथा समीक्षा से संबंधित निबंध


चिंतामणि भाग 1 के आरंभ में 10 निबंध मनोविकार से संबंधित हैं जिसमें से प्रथम निबंध भाव्या मनोविकार है अन्य नॉन निबंध क्रमांक है : उत्साह; श्रद्धा भक्ति; करुणा; लज्जा; ग्लानि ; लोग और प्रीति ; घृणा; ईर्ष्या; भाव और क्रोध।

शुक्ला जी के मनोविकार से संबंधित निबंध मनोवैज्ञानिक निबंध प्रतीत होते हैं यह निबंध व्यक्ति के मानसिकता का विश्लेषण भी करते हैं। शुक्ला जी के निबंध समाज मनोविज्ञान से संबंधित है।


उत्साह : सर और विश्लेषण :-


प्रथम अनुच्छेद :- शुक्ला जी के निबंध का शीर्षक रहा है। इस निबंध की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है - विषय की लीक पर चलना।

उत्साह निबंध का प्रथम अनुच्छेद बहुत महत्वपूर्ण है। अनुच्छेद में कुल 6 काव्य हैं जो निम्नलिखित हैं :- 


  • दुख के वर्ग में जो स्थान वह का है वही स्थान आनंद वर्ग में उत्साह का है। (जिस प्रकार दुख के समय व्यक्ति में एक है उत्पन्न होता है उसी प्रकार जब व्यक्ति खुश हो आनंद वर्ग में होता है तो उसके मन में उत्साह का आरंभ होता है और एक अलग स्थान बन जाता है। भय को उत्साह के ठीक विपरीत रखा गया है)


  • भय में हम प्रस्तुत कठिन स्थिति के नियम से विशेष रूप से दुख और कभी-कभी उस स्थिति से अपने को दूर रखने का प्रतिमान भी होते हैं।(हम भाई से मुक्त होने के लिए प्रयत्न करते हैं उस स्थिति में रहने हमें पसंद नहीं क्योंकि उस स्थिति में रहने से हम दुखी रहेंगे और दुखी कोई नहीं रहना चाहता वह दुख को दूर करने का प्रयत्न करेगा)


  • उत्साह में हम आने वाले कठिन स्थिति के भीतर साहस के अवसर के निश्चय द्वारा प्रस्तुत कर्म सुख की उमंग से अवश्य प्रयत्नवान होते हैं।(इसमें बताया गया है कि इस स्थिति में कठिन स्थिति का सामना साहस के साथ किया जाएगा और यही कर्म हमें निश्चय ही सुख देगा।)


  •  उत्साह में कष्ट या हानि सहने की दृढ़ता के साथ साथ कर्म में प्रवृत्ति होने के आनंद का योग रहता है।(उत्साह में कर्म में प्रवृत्ति होने के आनंद का योग रहता है कष्ट और हानि सहने की चिंता नहीं रहती । उसका सामने हंसते-हंसते कर लिया जाता है।)


  • साहस पूर्ण आनंद की उमंग का नाम उत्साह है।(सभी वाक्यों का निष्कर्ष इस वाक्य में बताया गया है और उत्साह की परिभाषा देते हुए कहते हैं साहस पूर्णानंद की उमंग का नाम उत्साह है।)


  • कर्म सौंदर्य के उपासक ही सच्चे उत्साही कहलाते हैं।(यह वाक्य उत्साह के नैतिक मूल्यों को बताता है।)


दूसरा अनुच्छेद में कुल 12 वाक्य है इनमें 11 वाक्य सारांश है और 12 वाक्य उत्साह की स्थिति को ठीक से स्पष्ट किया गया है।


  1. कष्ट या पीड़ा सहना तथा

  2. आनंदपूर्ण प्रयत्न (दोनों का योग होने पर ही उत्साह का स्वरूप ठीक से व्यक्त हो सकता है।) शुक्ल जी ने साहस और उत्साह में भेजद दिया है साहस उत्साह नहीं है। उदाहरण प्रस्तुत करते हुए शुक्ला जी लिखते हैं कि बिना बेहोश हुए फोड़ा चीरना साहस है उत्साह नहीं। 

  3. तीसरे अनुच्छेद में अर्थ त्याग की संभावनाओं पर और उससे संबंधित दानवीरता का विवेचन है।

  4. चौथे अनुच्छेद में युद्ध वीरता के अतिरिक्त अन्य संधान से संबंधित जोखिम के कामों का विवेचन है जिसमें साहस अपेक्षित है।

  5. मानसिक क्लेश की संभावनाओं का विवेचन विपरीत स्थिति बेहयां की है। बेहया बनकर रहने के लिए साहस अपेक्षित है।

  6. छठा़ अनुच्छेद में पांचवें का विस्तार है बया के स्वरूप को निंदा उपहास अपमान सहने का साहस के रूप में समझाया गया है।

  7. समाज सुधार से संबंधित आंदोलन का विवेचन दयावीर किसे कहना चाहिए।

  8. उत्साह को अच्छा गुण समझा जाता है कारण दिए गए हैं।

  9. नौवें अनुच्छेद प्रय्तन और कर्म के संकल्प को व्यक्त करता है।

  10. दसवीं अनुच्छेद में बुद्धि वीर का विवेचन है। बुद्धिवीर का संबंध कर्मवीर के साथ दिखलाया गया है।

  11. बुद्धि वीर के साथ वाग्वीर का विवेचन है।

  12. बारहवें  अनुच्छेद में सभी प्रकारों के वीरों की तुलना करते हुए युद्धवीर की प्रधानता को स्पष्ट किया गया है।

  13. 12 अनुच्छेद के निष्कर्ष 13 में है निष्कर्ष यह है कि कर्म भावना ही उत्साह उत्पन्न करती है वस्तु या व्यक्ति की भावना नहीं।

  14. 14 अनुच्छेद में वर्गीकरण है कर्म के अनुष्ठान में जो आनंद होता है उसका विधान तीन रूप में दिखाई पड़ता है

    • कर्म की भावनाओं से उत्पन्न

    • फल भावना से उत्पन्न और

    • आगंतुक अर्थात विषयान्तर से प्राप्त।

19 में अनुच्छेद का अंतिम वाक्य

जिस आनंद से कर्म का उत्तेजना होती है और जो आनंद कर्म करते समय तक बराबर चला चलता है उसी का नाम उत्साह है। 

20 अनुच्छेद में इस तरह चौथा वाक्य प्रयत्नस्पष्ट करता है। बुद्धि द्वारा पूर्ण रूप से निश्चित हुई व्यापार परंपरा का नाम प्रयत्न हैं।


गद्य शैली तथा शिल्प विधान


शुक्लजी की गद्य शैली की विशेषताएं निम्नलिखित है :- 

  • शुक्लजी अपने निबंध के विषय में पूरा ध्यान रखते हैं वह निबंध के प्रति इतने सदस्य हैं कि वह निबंध के अथवा कुछ भी दूसरा कहना या लिखना नहीं चाहते।

  • निबंध के आरंभ का अनुच्छेद विषय की स्थापना से संबंधित होता है विषय से संबंधित प्रमुख बातें प्रथम अनुच्छेद में ही बता दी जाती है बाद की अनुच्छेदों में केवल उनका विवरण होता है।

  • निबंध के सभी वाक्य एक दूसरे से जुड़े हुए हैं एक वाक्य को पढ़कर ही दूसरे वाक्य को पढ़ने का आनंद है क्योंकि तभी दूसरा वाक्य समझ में आएगा इस कसावट के कारण भाषा गंभीर हो गई है।

  • शुक्लजी जी के निबंधों में ज्ञान का भंडार है और उसका उपयोग बौद्धिक ढंग से हुआ है उनकी शैली में ज्ञान और बुद्धि का संतुलन पूर्ण रूप से है।

  • शुक्ल जी अपने लेखन कार्य में बहुत कारीगर है क्योंकि वह सब उनका अपना बचाया हुआ ज्ञान है अर्थात यह सब ज्ञान उन्होंने प्राप्त किया उसके बाद वह इस ज्ञान को अपनी शैली में जानकारी के रूप में प्रस्तुत करते हैं।

  • उत्साह निबंध में उनका लेखन पूर्ण रूप से विकसित रूप में है उक्त विषयों पर उक्त ज्ञान इस निबंध में पूरा तरह व्यक्त है।


भाषा शिल्प :- 

उत्साह निबंध की भाषा निबंध के स्वरूप की पहचान में सहायक है।शिल्प का तात्पर्य तकनीक या लेखन प्रणाली या लिखने के ढंग से है और लेखन भाषा में होता है इसीलिए भाषा शिल्प कहा जाता है।


कद विचारों का भंडार होता है और उसमें भी निबंध में तो विशुद्ध रूप से विचारों को बांधना है।

जब तक निबंध के विषय का पूरी तरह बोध नहीं होता तब तक निबंध लिखना असंभव है। और निबंध कितना प्रभावी है और उसकी क्या शक्ति है यह उसके प्रथम वाक्य में ही पता चल जाती है।


शुक्ला जी की भाषा की शक्ति पहचानने के लिए ही के प्रयोग पर ध्यान दें कुछ वाक्य:- 

  • बुद्धि द्वारा पूर्ण रूप से निश्चित की हुई व्यापार परंपरा का नाम ही प्रयत्न है।

  • कर्म में आनंद अनुभव करने वालों का नाम ही कर्मण्य है।

  • कर्म भावना प्रधान उत्साह ही सच्चा उत्साह है

  • कर्म सौंदर्य के उपासक ही सच्चे उपासक कहलाते हैं।


इन सभी वाक्यों में किसी शब्द पर बल दिया गया है लेखक को विश्वास है।


उत्साह वीर रस का स्थाई भाव है किंतु निबंध में उन्होंने ऐसे कोई भी बात का विवरण नहीं किया जिससे हम निबंध को काव्यशास्त्र का निबंध समझने लगे।


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