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4th
SEMESTER Hindi A
Unit 2 Chapter 3
मैं हार गई (मन्नू भंडारी)
लेखक परिचय :- मन्नू भंडारी का जन्म अप्रैल 1931 में मध्यप्रदेश के भानपुरा गांव में हुआ। श्री मुखसम्पतराय भंडारी की सबसे छोटी पुत्री थी।
मन्नू भंडारी का साहित्य संस्कार और जीवन से उनका सीधा संबंध रहा है। सन 1957 में उनका पहला कहानी संग्रह मैं हार गई नाम से प्रकाशित हुआ।
"मैं हार गई " कहानी संग्रह में मन्नू भंडारी ने अपने पिता को
श्रद्धा भाव के शब्दों में व्यक्त किया है जैसे जिन्होंने मेरी किसी भी इच्छा पर कभी अंकुश
नहीं लगाया पिताजी को ।
सन 1979 तक तीन निगाहों की तस्वीर , यह सच है, एक प्लेट सैलाब, श्रेष्ठ कहानियां, मेरी प्रिय कहानियां, तथा त्रिशंकु आदि उनके साथ कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके थे।
मन्नू भंडारी द्वारा रचित उपन्यास :- एक इंच मुस्कान, आपका बेटा, स्वामी, महाभोज, कलावा जैसे उपन्यासों को रचा गया।
"बिना दीवार का घर " मन्नू भंडारी द्वारा नाट्य रचना है साथ ही उन्होंने महाभोज उपन्यास का नाट्य रूपांतर भी प्रस्तुत किया है।
आंखों देखा झूठ का कहानी संग्रह है।
मैं हार गई
जब कवि-सम्मेलन
समाप्त हुआ तो सारा हॉल हँसी-कहकहों और तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज रहा था।
शायद मैं ही एक ऐसी थी, जिसका रोम-रोम क्रोध से जल रहा था।
उस सम्मेलन की अन्तिम कविता थी 'बेटे का भविष्य' । उसका सारांश कुछ इस प्रकार था, एक पिता अपने बेटे के भविष्य का अनुमान लगाने के लिए उसके कमरे में
एक अभिनेत्री की
तस्वीर,,एक शराब की बोतल और एक प्रति गीता की रख देता है और स्वयं छिपकर खड़ा
हो जाता है। बेटा आता है और सबसे पहले अभिनेत्री की तस्वीर को उठाता है।
उसकी बाछें खिल जाती हैं। बड़ी हसरत से उसे वह सीने से लगाता है, चूमता है और रख देता है। उसके बाद शराब की बोतल से दो-चार चूंट पीता
है।
थोड़ी देर बाद मुँह पर अत्यन्त गम्भीरता के भाव लाकर, बग़ल में गीता दबाए वह बाहर निकलता है। बाप बेटे की यह
करतूत देखकर उसके भविष्य की घोषणा करता है, “यह साला तो आजकल
का नेता बनेगा ! कवि महोदय ने यह पंक्ति पढ़ी ही थी
कि हॉल के एक कोने से दूसरे होने तक हँसी की लहर दौड़ गई। पर नेता की ऐसी
फजीहत देखकर मेरे तो तन-बदन में आग लग गई। साथ आए हुए मित्र ने व्यंग्य करते
हुए कहा, "क्यों, तुम्हें तो वह कविता बिल्कुल पसन्द
नहीं आई होगी। तुम्हारे पापा भी तो एक बड़े नेता हैं !
मैंने गुस्से में जवाब दिया, “पसन्द ! मैंने आज तक इससे भददी और
भोंडी कविता
नहीं सुनी ! अपने मित्र की व्यंग्य की तिक्तता
को मैं खूब अच्छी तरह पहचानती थी। उनका
क्रोध बहुत कुछ चिलम न मिलने वालों के आक्रोश के समान ही था। उनके
पिता चुनाव में मेरे पिताजी के प्रतिद्वन्द्वी के रूप में खड़े हुए थे और हार गए
थे। उस
तमाचे को वह अभी तक नहीं भूले थे। आज यह कविता सुनकर उन्हें दिल की
जलन
निकालने का अवसर मिला। उन्हें लग रहा था, मानो उनके पिता का हारना भी आज
सार्थक हो गया। पर मेरे मन में उस समय कुछ और चक्कर चल रहा था। मैं जली-भुनी जो
गाड़ी में बैठी तो सच मानिए, सारे रास्ते यही सोचती रही कि किस प्रकार इन
कवि महाशय को करारा-सा जवाब दूं। मेरे पापाजी के राज में ही नेता की ऐसी छीछालेदर भी कोई चुपचाप सह लेने की बात थी भला ! चाहती
तो यही थी कि कविता में ही उनको जवाब दूं, पर इस ओर कभी कदम नहीं उठाया था। सो
निश्चय किया कि कविता नहीं तो कहानी ही सही। अपनी कहानी में मैंने एक ऐसे सर्वगुणसम्पन्न
नेता का निर्माण करने की योजना बनाई जिसे पढ़कर कवि महाशय को अपनी हार माननी
ही पड़े। भरी सभा में वह जो नहला मार गए थे, उस पर मैं दहला नहीं, सीधे इक्का ही फटकारना चाहती थी, जिससे बाज़ी हर हालत में मेरी ही रहे।
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